"सब मिला इस राह में / मानोशी" के अवतरणों में अंतर
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तृप्त मन में अब नहीं है शेष कोई कामना।। | तृप्त मन में अब नहीं है शेष कोई कामना।। | ||
− | चाह तारों की कहाँ | + | चाह तारों की कहाँ जब गगन ही आँचल |
− | जब गगन ही आँचल बँधा हो, | + | बँधा हो, |
− | सूर्य ही जब पथ दिखाए | + | सूर्य ही जब पथ दिखाए पथिक को फिर |
− | पथिक को फिर क्या द्विधा हो, | + | क्या द्विधा हो, |
− | स्वप्न सारे ही फलित हैं, | + | स्वप्न सारे ही फलित हैं, कुछ नहीं आसक्ति नूतन, |
− | कुछ नहीं आसक्ति नूतन, | + | हृदय अब सागर समाया, हर लहर |
− | हृदय | + | जीवन-सुधा हो । |
− | धूप में चमके मगर | + | धूप में चमके मगर है एक पल का बुलबुला, |
− | है एक पल का बुलबुला, | + | अब नहीं उस काँच के |
− | अब नहीं उस काँच के चकचौंध की भी वासना | + | चकचौंध की भी |
+ | वासना ॥ | ||
− | जल रही मद्धम कहीं अब भी | + | जल रही मद्धम कहीं अब भी पुरानी |
− | पुरानी ज्योत स्मृति की, | + | ज्योत स्मृति की, |
− | ढल रही है दोपहर पर | + | ढल रही है दोपहर पर गंध सोंधी सी |
− | गंध सोंधी सी प्रकृति की, | + | प्रकृति की, |
− | थी कड़ी जब धूप उस | + | थी कड़ी जब धूप उस पल छाँह ले तरुवर तने थे, |
− | + | एक चंचल दिशाहीन दरिया रुकी | |
− | एक | + | निर्बाध गति की, |
− | मन कहीं भागे नहीं | + | मन कहीं भागे नहीं फिर से किसी |
− | फिर से किसी हिरणी सदृश, | + | हिरणी सदृश, |
− | बन्ध सारे तज सकूँ मैं बस यही है प्रार्थना | + | बन्ध सारे तज सकूँ मैं बस यही है |
+ | प्रार्थना ॥ | ||
− | काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के | + | काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के उत्तर |
− | उत्तर खोजता, | + | खोजता है, |
− | मन बवंडर में पड़ा दिन रात | + | मन बवंडर में पड़ा दिन रात अब क्या |
− | अब क्या सोचता, | + | सोचता है, |
− | दूसरों के कर्म के पीछे छुपे मंतव्य को | + | दूसरों के कर्म के पीछे छुपे मंतव्य को फिर |
− | समझ पाने के प्रयासों को | + | समझ पाने के प्रयासों को भला क्यों |
− | भला क्यों कोसता, | + | कोसता है, |
− | शांत हो चित धीर स्थिर मन, | + | |
− | हृदय में जागे क्षमा, | + | शांत हो चित धीर-स्थिर मन, हृदय में जागे क्षमा, |
− | ध्येय अंतिम पा सकूँ बस यह अकेली कामना | + | ध्येय अंतिम पा सकूँ बस |
+ | यह अकेली कामना ॥ | ||
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00:35, 16 जनवरी 2022 के समय का अवतरण
सब मिला इस राह में
कुछ फूल भी कुछ शूल भी,
तृप्त मन में अब नहीं है शेष कोई कामना।।
चाह तारों की कहाँ जब गगन ही आँचल
बँधा हो,
सूर्य ही जब पथ दिखाए पथिक को फिर
क्या द्विधा हो,
स्वप्न सारे ही फलित हैं, कुछ नहीं आसक्ति नूतन,
हृदय अब सागर समाया, हर लहर
जीवन-सुधा हो ।
धूप में चमके मगर है एक पल का बुलबुला,
अब नहीं उस काँच के
चकचौंध की भी
वासना ॥
जल रही मद्धम कहीं अब भी पुरानी
ज्योत स्मृति की,
ढल रही है दोपहर पर गंध सोंधी सी
प्रकृति की,
थी कड़ी जब धूप उस पल छाँह ले तरुवर तने थे,
एक चंचल दिशाहीन दरिया रुकी
निर्बाध गति की,
मन कहीं भागे नहीं फिर से किसी
हिरणी सदृश,
बन्ध सारे तज सकूँ मैं बस यही है
प्रार्थना ॥
काल के कुछ अनबुझे प्रश्नों के उत्तर
खोजता है,
मन बवंडर में पड़ा दिन रात अब क्या
सोचता है,
दूसरों के कर्म के पीछे छुपे मंतव्य को फिर
समझ पाने के प्रयासों को भला क्यों
कोसता है,
शांत हो चित धीर-स्थिर मन, हृदय में जागे क्षमा,
ध्येय अंतिम पा सकूँ बस
यह अकेली कामना ॥