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"दहशत / हरीशचन्द्र पाण्डे" के अवतरणों में अंतर

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20:19, 3 नवम्बर 2008 के समय का अवतरण

पारे सी चमक रही है वह

मुस्कराते होठों के उस हल्के दबे कोर को तो देखो
जहाँ से रिस रही है दहशत

एक दृश्य अपने-अपने भीतर बनते हुए बंकरों का
एक ध्वनि फूलों के चटाचट टूटने सी
एक कल्पना सारे आपराधिक उपन्यासों के पात्र
जीवित हो गये हैं

बहिष्कृत स्मृतियाँ लौटी हैं फिर

एक बार फिर
रगों में दौड़ने के बजाय
ख़ून गलियों में दौड़ने लगा है