"तीसरा पहर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर
पंक्ति 16: | पंक्ति 16: | ||
|विविध=मूल्य(पेपर बैक) :100 रुपये | |विविध=मूल्य(पेपर बैक) :100 रुपये | ||
}} | }} | ||
+ | |||
+ | '''जापानी काव्य-शैलियों की विशिष्ट कृति- तीसरा पहर / शिवजी श्रीवास्तव-निम्नलिखित लिंक पर-''' | ||
+ | |||
+ | [http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF-%E0%A4%B6%E0%A5%88%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%9F_%E0%A4%95%E0%A5%83%E0%A4%A4%E0%A4%BF-_%E0%A4%A4%E0%A5%80%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%BE_%E0%A4%AA%E0%A4%B9%E0%A4%B0_/_%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%9C%E0%A5%80_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%B5] | ||
+ | |||
'''दो शब्द''' | '''दो शब्द''' | ||
11:19, 23 मई 2022 का अवतरण
कृपया kavitakosh AT gmail DOT com पर भेजें
रचनाकार | रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' |
---|---|
प्रकाशक | अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली , नई दिल्ली-110030 |
वर्ष | 2020 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | ( ताँक, सेदोका , चोका )कविताएँ |
विधा | जापानी काव्य |
पृष्ठ | 80 |
ISBN | 978-93-89999-37-2 |
विविध | मूल्य(पेपर बैक) :100 रुपये |
जापानी काव्य-शैलियों की विशिष्ट कृति- तीसरा पहर / शिवजी श्रीवास्तव-निम्नलिखित लिंक पर-
दो शब्द
हिन्दी जगत् में जिन रचनाकारों ने जापानी-काव्यशैली के विविध रूपों को स्थापित करने का अनवरत श्रम किया है, उनमें डॉ. सुधा गुप्ता जी अग्रगण्य हैं। वर्ष 2011 से 2014 की अवधि इन विधाओं की गुणवत्ता के आधार पर स्थापना का काल है। इनके सात छेदवाली मैं (ताँका-संग्रह-अप्रैल 2011) , ओक भर किरनें (चोका-संग्रह अगस्त 2011) सागर को रौंदने (सेदोका-संग्रह, जनवरी 2014) सफ़र के छाले हैं (हाइबन-हाइकु, सितम्बर-2014) संग्रह इस बात का प्रमाण हैं कि हिन्दी में इन काव्यरूपों में जो रचनाएँ सामने आई हैं, उनका विश्व-स्तरीय महत्त्व है।
मेरे ताँका और चोका का सर्जन 2011 से मिले किनारे (डॉ.हरदीप कौर सन्धु के साथ संयुक्त-संग्रह) के द्वारा सामने आया। सेदोका की शुरूआत सम्पादित संग्रह अलसाई चाँदनी (2012) के माध्यम से की गई। इन विधाओं को आगे बढ़ाने में त्रिवेणी की महती भूमिका रही है। मैंने ताँका, सेदोका और चोका की जो भी रचना की, वह किसी दबाव के कारण या छपास के कारण नहीं की। हमारे दो सम्पादित संग्रह-भाव कलश और यादों के पाखी जून 2012 तक आ चुके थे। मेरे अगस्त 2011 के बाद के ताँका फाइलों में पड़े थे। दीदी डॉ. सुधा गुप्ता जी की डाँट पड़ी कि सम्पादन कार्य तो ठीक है, अपने ताँका मुझे तुरन्त भेजो और अन्य काम करने से पहले यह संग्रह प्रकाशित कराओ। फलतः झरे हरसिंगार (2 सितम्बर 2012) प्रकाशित हुआ। सितम्बर 2012 के बाद के ताँका और सेदोका फ़ाइलों ही पड़े रहे। अब इनकी मुक्ति का अवसर आया, तो चोका के साथ इनको भी तीसरे पहर में समेट रहा हूँ।
अपनी इन रचनाओं के विषय में एक बात कहना आवश्यक समझता हूँ-इनमें अगर मैं कहीं हूँ, तो मेरे आसपास के समाज का परिवेश भी है, उसका हर्ष-विषाद, अन्तर्द्वन्द्व, आक्रोश-अनुताप भी है। उस परिवेश के बिना मैं शून्य हूँ। हन्दी जगत् में जिन रचनाकारों ने जापानी-काव्यशैली के विविध रूपों को स्थापित करने का अनवरत श्रम किया है, उनमें डॉ-सुधा गुप्ता जी अग्रगण्य हैं। वर्ष 2011 से 2014 की अवधि इन विधाओं की गुणवत्ता के आधार पर स्थापना का काल है। इनके सात छेदवाली मैं (ताँका-संग्रह-अप्रैल 2011) , ओक भर किरनें (चोका-संग्रह अगस्त 2011) सागर को रौंदने (सेदोका-संग्रह, जनवरी 2014) सप़फ़र के छाले हैं (हाइबन-हाइकु, सितम्बर-2014) संग्रह इस बात का प्रमाण हैं कि हिन्दी में इन काव्यरूपों में जो रचनाएँ सामने आई हैं, उनका विश्व-स्तरीय महत्त्व है।
मेरे ताँका और चोका का सर्जन 2011 से मिले किनारे (डॉ-हरदीप कौर सन्धु के साथ संयुत्तफ़-संग्रह) के द्वारा सामने आया। सेदोका की शुरूआत सम्पादित संग्रह अलसाई चाँदनी (2012) के माध्यम से की गई। इन विधाओं को आगे बढ़ाने में त्रिवेणी की महती भूमिका रही है। मैंने ताँका, सेदोका और चोका की जो भी रचना की, वह किसी दबाव के कारण या छपास के कारण नहीं की। हमारे दो सम्पादित संग्रह-भाव कलश और यादों के पाखी जून 2012 तक आ चुके थे। मेरे अगस्त 2011 के बाद के ताँका फाइलों में पड़े थे। दीदी डॉ-सुधा गुप्ता जी की डाँट पड़ी कि सम्पादन कार्य तो ठीक है, अपने ताँका मुझे तुरन्त भेजो और अन्य काम करने से पहले यह संग्रह प्रकाशित कराओ। फलतः झरे हरसिंगार (2 सितम्बर 2012) प्रकाशित हुआ। सितम्बर 2012 के बाद के ताँका और सेदोका फ़ाइलों ही पड़े रहे। अब इनकी मुक्ति का अवसर आया, तो चोका के साथ इनको भी तीसरे पहर में समेट रहा हूँ।
अपनी इन रचनाओं के विषय में एक बात कहना आवश्यक समझता हूँ-इनमें अगर मैं कहीं हूँ, तो मेरे आसपास के समाज का परिवेश भी है, उसका हर्ष-विषाद, अन्तर्द्वन्द्व, आक्रोश-अनुताप भी है। उस परिवेश के बिना मैं शून्य हूँ। किसी भी रचना में (गद्य-पद्य) सब कुछ रचनाकार का नहीं होता। उदात्त स्थिति में वह भाव / विचार-सम्पदा किसी की भी हो सकती है। व्यंग्य लेख और काव्य सपाटबयानी नहीं होते। इनको समझने के लिए भाषा की अभिधा शक्ति के दायरे से बाहर निकलना ज़रूरी है। रचनाकार के भाव प्रतिपल एक जैसे नहीं हो सकते। वह भी हाड़-मांस का बना एक प्राणी है। सुख-दुःख उसके भी साथ लगे हैं। रचना में सारा सुख-दुःख उसी का नहीं होता, समाज के किसी भी वर्ग और व्यक्ति का हो सकता है।
यहाँ अपनी व्यंग्य-यात्रा की दो घटनाएँ बताना चाहूँगा। आकाशवाणी रामपुर ने 'काश! हम भी कुँआरे होते' पर व्यंग्य लिखने के लिए अनुबन्ध-पत्र भेजा। शिक्षक होने के नाते मुझे इस विषय पर लिखना अपनी प्रकृति के अनुकूल नहीं लगा, तो भी इस आग्रह को स्वीकार करना पड़ा। बाद में जब यह व्यंग्य प्रकाशित हुआ, तो किसी महोदय ने सतही अर्थ-ग्रहण करके मेरे प्रति सहानुभूति जताई, जबकि व्यंग्य में आई बातों का मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं था। दूसरा व्यंग्य 'मकान की तलाश' था, जो किरायेदारों की समस्या पर था। उसमें उल्लिखित कोई भी समस्या मेरी नहीं थी। बरेली के असाहित्यिक मकान मालिक ने पढ़ा, तो उनके कान खड़े हो गए कि यह उनके बारे में लिखा गया है। उनका व्यवहार ही बदल गया। ये दोनों घटनाएँ मूर्खता की पराकाष्ठा थीं।
'तीसरे पहर' संग्रह में मेरे 150 ताँका, 132 सेदोका और 44 चोका हैं। इन्हें एक साथ प्रस्तुत करने का उद्देश्य है-विषय की प्रस्तुति में अन्तर। जहाँ ताँका / सेदोका के लिए आकारगत सीमा निश्चित है, वहीं चोका में आकार-विस्तार का कोई बंधन नहीं है। पढ़ते समय इसको महसूस किया जा सकता है। प्रत्येक पाठक की अपनी सीमाएँ होती हैं। वह अपना अर्थ ग्रहण करने के लिए स्वतन्त्र है। वह कोल्हू के बैल की तरह संकुचित अर्थ के दायरे में भी घूम सकता है, व्यापक अध्ययन-मनन, अनुभूति और कल्पना का धनी होने पर उस अर्थ तक भी पहुँच सकता है, जो कहीं मेरे अवचेतन में रहा होगा, या जिसका मुझे आभास भी नहीं। मेरा यह सर्जन सायास न होकर स्वतःस्फूर्त है।
मेरे रचनाकर्म को जिन्होंने सराहा, वे मेरे लिए सर्वोपरि हैं, प्रणम्य हैं। यह संग्रह उन्हीं को निवेद्य है।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'