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"देशान्तर / शंख घोष / जयश्री पुरवार" के अवतरणों में अंतर

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पृथ्वी तो ऐसी ही है ।
 
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सोचता हूँ जीवित रहना होगा इसी के बीच ।
 
सोचता हूँ जीवित रहना होगा इसी के बीच ।
बरगद के पेड़ से लटकने वाली जड़ो की तरह हमारे,
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बरगद के पेड़ से लटकने वाली जड़ों की तरह हमारे,
 
मेरे — शरीर को घेरकर
 
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कितनी कितनी अभिज्ञता उतर आई
 
कितनी कितनी अभिज्ञता उतर आई
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मृत्यु से ठीक पहले  
 
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समझ भी नहीं पाया मैं
 
समझ भी नहीं पाया मैं
कि अपने शरीर का बलिदान किस देश पर कर दूँ
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कि किस देश के लिए मैंने
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अपने शरीर का यह बलिदान किया है
 
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21:27, 3 जुलाई 2022 का अवतरण

उसके बाद
रास्ते भर बिना कोई बात किए
हम चलते रहे, चलते ही रहे
एक देश से दूसरे देश
एक घर्षण से दूसरे घर्षण की ओर ।

पृथ्वी तो ऐसी ही है ।
सोचता हूँ जीवित रहना होगा इसी के बीच ।
बरगद के पेड़ से लटकने वाली जड़ों की तरह हमारे,
मेरे — शरीर को घेरकर
कितनी कितनी अभिज्ञता उतर आई
अवलम्बनहीन । इतिहासविहीन ।

उसके बाद
भोर होने से कुछ पहले
सीमा रक्षक की गोली सीने पर आकर लगी —

मृत्यु से ठीक पहले
समझ भी नहीं पाया मैं
कि किस देश के लिए मैंने
अपने शरीर का यह बलिदान किया है ।