भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"जो मारे जाते / शिरोमणि महतो" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 15: पंक्ति 15:
 
वे मन्दिर और मस्ज़िद में
 
वे मन्दिर और मस्ज़िद में
 
गुरुद्वारे और गिरजाघर में
 
गुरुद्वारे और गिरजाघर में
 +
कोई फ़र्क नहीं समझते
 +
उनके लिए वे देव-थान
 +
आत्मा का स्नानघर होते !
 +
 +
वे उन देव थानों को
 +
बारूद से उड़ाना तो दूर
 +
उस ओर पत्थर भी नहीं फेंक सकते,
 +
वे उन देव थानों को
 +
अपने हाथों से तोड़ना तो दूर
 +
उस ओर ठेप्पा भी नहीं दिखा सकते ।
 +
 +
वे याद नहीं रखते
 +
वेदों की ऋचाएँ / कुरान की आयतें
 +
वे केवल याद रखते हैं
 +
अपने परिवार की कुछेक ज़रूरतें ।
 +
 +
वे दिन भर खटते-खपते है —
 +
तन भर कपड़ा / सर पर छप्पर और पेट भर भात के लिए
 +
वे कभी नहीं चाहते
 +
सत्ता की सेज पर सोना
 +
क्योंकि वे नहीं जानते
 +
राजनीति का व्याकरण
 +
भाषा के भेद
 +
उच्चारणों का {{KKGlobal}}
 +
{{KKRachna
 +
|रचनाकार=शिरोमणि महतो
 +
|अनुवादक=
 +
|संग्रह=
 +
}}
 +
{{KKCatKavita}}
 +
<poem>
 +
वे एक हाँक में
 +
दौड़े आते सरपट गौओं की तरह
 +
वे बलि-वेदी पर गर्दन डालकर
 +
मुँह से उ‌फ़्फ़ भी नहीं करते ।
 +
 +
बिलकुल भेड़ों की तरह
 +
वे मन्दिर और मस्ज़िद में
 +
गु्रुद्वारे और गिरजाघर में
 
कोई फ़र्क नहीं समझते
 
कोई फ़र्क नहीं समझते
 
उनके लिए वे देव-थान
 
उनके लिए वे देव-थान
पंक्ति 39: पंक्ति 78:
 
भाषा के भेद
 
भाषा के भेद
 
उच्चारणों का अनुतान ।
 
उच्चारणों का अनुतान ।
 +
 +
हाँ !
 +
वे रोज़ी कमाते हैं
 +
रोटी पकाते हैं
 +
और चूल्हे में
 +
रोटी सेंकते भी हैं
 +
लेकिन वे नहीं जानते
 +
आग से दूर रहकर
 +
रोटी सेंकने की कला !
 +
</poem> ।
  
 
हाँ !
 
हाँ !

10:07, 29 अगस्त 2022 का अवतरण

वे एक हाँक में
दौड़े आते सरपट गौओं की तरह
वे बलि-वेदी पर गर्दन डालकर
मुँह से उ‌फ़्फ़ भी नहीं करते ।

बिलकुल भेड़ों की तरह
वे मन्दिर और मस्ज़िद में
गुरुद्वारे और गिरजाघर में
कोई फ़र्क नहीं समझते
उनके लिए वे देव-थान
आत्मा का स्नानघर होते !

वे उन देव थानों को
बारूद से उड़ाना तो दूर
उस ओर पत्थर भी नहीं फेंक सकते,
वे उन देव थानों को
अपने हाथों से तोड़ना तो दूर
उस ओर ठेप्पा भी नहीं दिखा सकते ।

वे याद नहीं रखते
वेदों की ऋचाएँ / कुरान की आयतें
वे केवल याद रखते हैं
अपने परिवार की कुछेक ज़रूरतें ।

वे दिन भर खटते-खपते है —
तन भर कपड़ा / सर पर छप्पर और पेट भर भात के लिए
वे कभी नहीं चाहते
सत्ता की सेज पर सोना
क्योंकि वे नहीं जानते
राजनीति का व्याकरण
भाषा के भेद
उच्चारणों का
{{KKRachna
|रचनाकार=शिरोमणि महतो
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}



वे एक हाँक में

दौड़े आते सरपट गौओं की तरह

वे बलि-वेदी पर गर्दन डालकर

मुँह से उ‌फ़्फ़ भी नहीं करते ।



बिलकुल भेड़ों की तरह

वे मन्दिर और मस्ज़िद में

गु्रुद्वारे और गिरजाघर में

कोई फ़र्क नहीं समझते

उनके लिए वे देव-थान

आत्मा का स्नानघर होते !



वे उन देव थानों को

बारूद से उड़ाना तो दूर

उस ओर पत्थर भी नहीं फेंक सकते,

वे उन देव थानों को

अपने हाथों से तोड़ना तो दूर

उस ओर ठेप्पा भी नहीं दिखा सकते ।



वे याद नहीं रखते

वेदों की ऋचाएँ / कुरान की आयतें

वे केवल याद रखते हैं

अपने परिवार की कुछेक ज़रूरतें ।



वे दिन भर खटते-खपते है —

तन भर कपड़ा / सर पर छप्पर और पेट भर भात के लिए

वे कभी नहीं चाहते

सता की सेज पर सोना

क्योंकि वे नहीं जानते

राजनीति का व्याकरण

भाषा के भेद

उच्चारणों का अनुतान ।



हाँ !

वे रोज़ी कमाते हैं

रोटी पकाते हैं

और चूल्हे में

रोटी सेंकते भी हैं

लेकिन वे नहीं जानते

आग से दूर रहकर

रोटी सेंकने की कला !

हाँ ! वे रोज़ी कमाते हैं रोटी पकाते हैं और चूल्हे में रोटी सेंकते भी हैं लेकिन वे नहीं जानते आग से दूर रहकर रोटी सेंकने की कला ! </poem>