"भात का भूगोल / शिरोमणि महतो" के अवतरणों में अंतर
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|रचनाकार=शिरोमणि महतो | |रचनाकार=शिरोमणि महतो |
10:15, 29 अगस्त 2022 का अवतरण
पहले चावल को
बड़े यत्न से निरखा जाता
फिर धोया जाता स्वच्छ पानी में
तन-मन को धोने की तरह
फिर सनसनाते हुए अधन में
पितरों को नमन करते हुए
डाला जाता है — चावल को
अधन का ताप बढने लगता है
और चावल का रूप-गन्ध बदलने लगता है
लोहे को पिघलना पड़ता है
औजारों में ढलने के लिए
सोने को गलना पड़ता है
ज़ेवर बनने के लिए
और चावल को उबलना पड़ता है
भात बनने के लिए
मानों,
सृजन का प्रस्थान बिन्दु होता है — दुख !
लगभग पौन घण्टा डबकने के बाद
एक भात को दबा कर परखा जाता है
और एक भात से पता चल जाता है
पूरे भात को एक ही साथ होना ।
बड़े यत्न से पसाया जाता है माँड
फिर थोड़ी देर के लिए
आग पर चढा़या जाता है भात को
ताकि लजबज न रहे
आग के कटिबन्ध से होकर
गुज़रता है — भात का भूगोल
तब जाके भरता है —
मानव का पेट — गोल-गोल !