भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"तुम एक अजाना सपना / अजय कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजय कुमार }} {{KKCatKavita}} <poem> </poem>' के साथ नया पृष्ठ बनाया) |
|||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | तुम एक | ||
+ | अजाना सपना | ||
+ | जैसे एक रंगीन | ||
+ | खुल गया छाता | ||
+ | मैं कैसे बच पाता | ||
+ | परछाइयाँ पुरानी | ||
+ | सब टूटी | ||
+ | और बिखर गईं | ||
+ | नील झील | ||
+ | मन दर्पण में | ||
+ | छवि बनी | ||
+ | और सँवर गई | ||
+ | |||
+ | बूँदों से धरती का | ||
+ | ज्यों फिर से नया नाता | ||
+ | मैं कैसे न रसमसाता | ||
+ | |||
+ | आवारा बादल को जैसे | ||
+ | एक बिजली ने था छुआ | ||
+ | रखी बाँसुरी को जैसे | ||
+ | पागल हवा ने फूँक दिया | ||
+ | |||
+ | तितली के पंख- सा | ||
+ | एक खत था फड़फड़ाता | ||
+ | दिल कैसे न पढ़ पाता | ||
+ | |||
+ | इंद्रधनुषी दिन हुए | ||
+ | शामें अब मनरंगी | ||
+ | बहती नदी- सा | ||
+ | वक्त हुआ यह | ||
+ | मदहोश और अतरंगी | ||
+ | |||
+ | केसर छुटे निमंत्रण को | ||
+ | कोई कैसे फिर ठुकराता | ||
+ | मेहरबान हो जब | ||
+ | मौसम इतना | ||
+ | मैं क्यूँ नहीं इतराता | ||
+ | |||
+ | तुम एक अजाना सपना..... | ||
</poem> | </poem> |
02:40, 17 नवम्बर 2022 के समय का अवतरण
तुम एक
अजाना सपना
जैसे एक रंगीन
खुल गया छाता
मैं कैसे बच पाता
परछाइयाँ पुरानी
सब टूटी
और बिखर गईं
नील झील
मन दर्पण में
छवि बनी
और सँवर गई
बूँदों से धरती का
ज्यों फिर से नया नाता
मैं कैसे न रसमसाता
आवारा बादल को जैसे
एक बिजली ने था छुआ
रखी बाँसुरी को जैसे
पागल हवा ने फूँक दिया
तितली के पंख- सा
एक खत था फड़फड़ाता
दिल कैसे न पढ़ पाता
इंद्रधनुषी दिन हुए
शामें अब मनरंगी
बहती नदी- सा
वक्त हुआ यह
मदहोश और अतरंगी
केसर छुटे निमंत्रण को
कोई कैसे फिर ठुकराता
मेहरबान हो जब
मौसम इतना
मैं क्यूँ नहीं इतराता
तुम एक अजाना सपना.....