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<poem>
जब-जब दानव
बीच सड़क पर
चलकर आएँगे।
किसी भले
मानुष के घर को
आग लगाएँगे।
अनगिन दाग़
लगे हैं इनके
काले दामन पर
लाख देखना-
चाहें फिर भी
देख न पाएँगे।
कभी जाति,
कभी मजहब के
झण्डे फहराकर
गुण्डे कौर
छीन भूखों का
खुद खा जाएँगे।
 
नफ़रत बोकर
नफ़रत की ही
फ़सलें काटेंगे
खुली हाट में
नफ़रत का ही-
ढेर लगाएँगे।
 
तुझे कसम है-
हार न जाना
लंका नगरी में
खो गया
विश्वास कहाँ से
खोजके लाएँगे।
 
इंसानों के
दुश्मन तो हर
घर में बैठे हैं
उनसे टक्कर
लेनेवाले-
भी मिल जाएँगे।
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