भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"दिसम्बर 2020 / कुमार कृष्ण" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार कृष्ण |अनुवादक= |संग्रह=धरत...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

23:18, 22 फ़रवरी 2023 के समय का अवतरण

उम्मीद थी तुम आओगे इस बार-
अपने कम्बल में दवा छुपा कर
कर दोगे भयमुक्त्त पूरी पृथ्वी
लौट आएगा दो पाँव वाले जीव का विश्वास
फिर से अपने हाथों पर
बहुत रंग बदल चुकी है इन बारह महीनों में दुनिया
हम जान चुके हैं-
कितना खुदपरस्त होता है मौत का भय
तुम्हारा स्वागत किया इस बार सबसे पहले
गेहूँ के दानों ने
तुम्हारे आने से पहले
बहुत गुस्से में थी रोटी
रो रही थी खेतों में अपनी कंगाली पर
दानों ने तय किया-
वे नहीं बिकेंगे हर किसी के पास
दाने अपनी तकलीफ़ अपना आक्रोश
कंधों पर उठा कर चल पड़े राजा के पास
फरियादी बन कर
वे भूल चुके थे-
राजा हल का हल छल से बल से करता है
तमाम राजा छल से बल से बनते हैं राजा
दाने बैठ गए राजा के आंगन में
बादलों का कम्बल ओढ़ कर
किसानी उम्मीद के साथ
आएगा राजा सुनेगा दानों की तकलीफ़
इस बीच तुम उतरे धरती पर
तुम्हारे पास थी ठंढ की बड़ी-बड़ी बोरियाँ
तुम्हारे आने से कई गुना बढ़ गई
दानों की तकलीफ़
दाने जानते थे अच्छी तरह
तुमसे मुकाबला करना
सदियों से आ रहे थे लड़ते ठंढ से जंग
उनको आता था-
दिसम्बर को पगड़ी में छुपाना
पर दाने नहीं जानते थे-
राजा से लड़ने की तरकीब
ऐन उसी वक्त आग दोस्त बन कर आई दोनों के पास
एक उम्मीद में खड़े हो गए दाने
धरती का पसीना भी चला आया
दानों का हौसला बढ़ाने
दोनों ने एक दूसरे से कहा-
हम छुपा लेंगे खेतों को बैलों के पेट में
हम लड़ेंगे राजा के साथ
हम हैं पगड़ी वाले, गमछे वाले दाने
हम लड़ेंगे अपनी अंतिम सांस तक।