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शब्द अपने कन्धों पर
उम्मीद की बोरियाँ उठा कर
चलते रहते हैं दिन-रात नंगे पाँव
वे आते हैं चुपचाप
कविताओं से प्यार करने
जान चुके हैं वे-
मनुष्य ही थपथपा सकता है
उनके थके कंधों को
तमाम देवता नहीं समझते
कविता की भाषा।