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"इलाहाबाद के हवाले से / राहुल द्विवेदी" के अवतरणों में अंतर
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कुछ भी नहीं होता
यहाँ
बड़े शहरों कि तरह...
न कोई चकाचौंध
और
न ही सनसनाती हुई खबरें
दिन भर की थकी हुई जिन्दगी
और फिर वही ठहरी हुई शाम...
वही जाने पहचाने चेहरे
एक दूसरे को पहचानने
और भुलाने के
क्रम में
खुद को भूलते लोग...
सिगरेट की एक लम्बी कश...
और उसके उठते धुएं के छल्लों के बीच
ठहाकों की आवाज़
अहसास कराती है
लोगों के ज़िंदा होने का
फिर छा जाती है-
दिल दहला देने वाली ...
चिर-परिचित सी
कब्रिस्तानों की ख़ामोशी...