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20:04, 14 नवम्बर 2008 के समय का अवतरण

मैं बहुत दूर से उड़कर आया पत्ता हूं


यहां की हवाओं में भटकता

यहां के समुद्र, पहाड़ और वृक्षों के लिए

अपरिचित, अजान, अजनबी


जैसे दूर से आती हैं समुद्री हवाएं

दूर से आते हैं प्रवासी पक्षी

सुदूर अरण्य से आती है गंध

प्राचीन पुष्प की

मैं दूर से उड़कर आया पत्ता हूं


तपा हूं मैं भी

प्रचंड अग्नि में देव भास्कर की

प्रचंड प्रभंजन ने चूमा है मेरा भी ललाट

जुड़ना चाहता हूं फिर किसी टहनी से

पाना चाहता हूं रंग वसंत का ललछौंह


नई भूमि

नई वनस्पति को

करना चाहता हूं प्रणाम

मैं दूर से उड़कर आया पत्ता हूं ।