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चारूस्मिता, तेरा हास विमल,
ये अधरोष्ठ पाण्डुर–पाटल,
कवरी–कृष्ण–कुंंचित–कुंतल,
कोमल–कपोल कुसुमित–कोंपल,
मन में विकसित करते ये अनल।
चित् की उत्कण्ठा यह हर पल,
तुझे निर्निमेष देखूं अविरल।
चारू–चक्षु चंचल–खंजन
विद्युत–उपांग नटखट–लोचन
पलक–ओट अक्षी–नर्तन
लय–ताल सहित नूपुर–क्वणन
मन में पुष्पित हैं स्नेह–सुमन
श्वासों में है सुरभित चन्दन।
यह स्नेह–सिक्त स्वभाव सरल
क्या भ्रम मात्र ही है केवल?