भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आत्मा का विस्तार (द एक्सपेंन्स आफ स्पिरिट0 सॉनेट/ विलियम शेक्सपियर / विनीत मोहन औदिच्य" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनीत मोहन औदिच्य }} {{KKCatKavita}} <poem> चूंक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
{{KKCatKavita}}
 
{{KKCatKavita}}
 
<poem>
 
<poem>
चूंकि नहीं है कोई सहायक, हम लें चुंबन और हों पृथक
 
नहीं, मैं हूँ आश्वस्त, तुम नहीं हो सकोगी मुझसे संयुक्त
 
और मैं हूँ आनंदित, हाँ पूर्ण मन से आनंदित अथक
 
कि इस प्रकार स्पष्टता से मैं स्वयं हो सकता हूँ मुक्त।
 
  
सदा के लिए मिला हाथ, हम करें सभी शपथ स्थगित
+
अत्यंत लज्जा जनक होता व्यापक शक्ति का व्यर्थ क्षरण
ताकि जब फिर कभी हम मिलें जो दोबारा
+
संभोग की इतिश्री से रतिक्रिया अंत तक वासना रहे पास
ये सोच, हम में से कोई न दिखाई दे तनिक भी व्यथित
+
निर्मम कामुकता कराती वचन भंग, दोषारोपण, लाती मरण
कि पुराने प्रेम का अभी तक है शेषांश हमारा
+
असभ्य, अतिरंजित, जंगली, जिस पर न हो सकता विश्वास
  
अब अंतिम उसाँस प्रेम की, नवीनतम शेष श्वास
+
सुखानिभूति उपरांत अविलम्ब उपजाती अप्रिय विरक्ति
जब उसकी छूटती सी नाड़ी, मौन रहती भावना
+
पूर्व में खोजी जाती व्यग्रता से, लक्ष्य सिद्धि उपरांत
जब घुटने मोड़े हुए हो, उसकी मृत्यु शय्या निकट विश्वास
+
होती कारक घृणा का, ज्यों मत्स्य की प्रलोभन अनुरक्ति
और उसकी बंद आँखें कर रहीं हो निर्दोषता का सामना
+
जो जाल बिछाया जाता प्राप्त कर्ता को करने अशांत
  
अब यदि तुम चाहो, जब सभी कर चुके हों उसे समर्पित
+
अनुसरण और प्राप्ति में करती है ये वासना उन्मत्त
तुम ही हो, जो कर सकती हो, उसे फिर से पुनर्जीवित ।।
+
पाकर, पाते हुए और पाने की खोज में टूटती हर सीमा
 +
प्राप्ति कराती स्वर्गीय अनुभूति, लाती व्यथा हो कर प्रदत्त
 +
पूर्व में संभावित आनंद, समाप्ति पर शेष रहता स्वप्न धीमा।
  
 +
विश्व को है सर्व विदित, फिर भी कोई न जान पाता!
 +
त्याग देता मनुज स्वर्ग जो इसे नर्क द्वार तक ले जाता।।
 
</poem>
 
</poem>

07:49, 28 अक्टूबर 2023 के समय का अवतरण


अत्यंत लज्जा जनक होता व्यापक शक्ति का व्यर्थ क्षरण
संभोग की इतिश्री से रतिक्रिया अंत तक वासना रहे पास
निर्मम कामुकता कराती वचन भंग, दोषारोपण, लाती मरण
असभ्य, अतिरंजित, जंगली, जिस पर न हो सकता विश्वास ।

सुखानिभूति उपरांत अविलम्ब उपजाती अप्रिय विरक्ति
पूर्व में खोजी जाती व्यग्रता से, लक्ष्य सिद्धि उपरांत
होती कारक घृणा का, ज्यों मत्स्य की प्रलोभन अनुरक्ति
जो जाल बिछाया जाता प्राप्त कर्ता को करने अशांत ।

अनुसरण और प्राप्ति में करती है ये वासना उन्मत्त
पाकर, पाते हुए और पाने की खोज में टूटती हर सीमा
प्राप्ति कराती स्वर्गीय अनुभूति, लाती व्यथा हो कर प्रदत्त
पूर्व में संभावित आनंद, समाप्ति पर शेष रहता स्वप्न धीमा।

विश्व को है सर्व विदित, फिर भी कोई न जान पाता!
त्याग देता मनुज स्वर्ग जो इसे नर्क द्वार तक ले जाता।।