भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पानी को पानी कह पाना / जगदीश व्योम" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश व्योम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 47: पंक्ति 47:
 
मुश्किल है ताण्डव सह पाना !
 
मुश्किल है ताण्डव सह पाना !
 
इतना भी........  !!
 
इतना भी........  !!
 +
 +
-डॅा. जगदीश व्योम
 
</poem>
 
</poem>

10:46, 30 नवम्बर 2023 के समय का अवतरण

इतना भी
आसान कहाँ है !
पानी को पानी कह पाना !

कुछ सनकी
बस बैठे ठाले
सच के पीछे पड़ जाते हैं
भले रहें गर्दिश में
लेकिन अपनी
ज़िद पर अड़ जाते हैं
युग की इस
उद्दण्ड नदी में
सहज नहीं उल्टा बह पाना !
इतना भी.... !!

यूँ तो सच के
बहुत मुखौटे
क़दम-क़दम पर
दिख जाते हैं
जो कि इंच भर
सुख की ख़ातिर
फ़ुटपाथों पर
बिक जाते हैं
सोचो !
इनके साथ सत्य का
कितना मुश्किल है रह पाना !
इतना भी............. !!

जिनके श्रम से
चहल-पहल है
फैली है
चेहरों पर लाली
वे शिव हैं
अभिशप्त समय के
लिए कुण्डली में
कंगाली
जिस पल शिव,
शंकर में बदले
मुश्किल है ताण्डव सह पाना !
इतना भी........  !!

-डॅा. जगदीश व्योम