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"खुले में आवास (कविता) / कमलेश" के अवतरणों में अंतर
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खुले के हर ओर फैला महावन है | खुले के हर ओर फैला महावन है | ||
सघन लता-गुल्मों, वृक्षों, झाड़ी-झँखाड़ से | सघन लता-गुल्मों, वृक्षों, झाड़ी-झँखाड़ से | ||
− | + | गूँजित हिंस्र पशुओं की अमुखर चीख़ों से | |
अलँघ्य राहों पर लुप्त पदचिह्नों से । | अलँघ्य राहों पर लुप्त पदचिह्नों से । | ||
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धरती पर कच्छप पीठ-सा उठा हुआ | धरती पर कच्छप पीठ-सा उठा हुआ | ||
अजानी, अदेखी, संकरी पगडण्डी है | अजानी, अदेखी, संकरी पगडण्डी है | ||
− | पैतृक आवाज़ें | + | पैतृक आवाज़ें वहाँ ले आती हैं । |
खुले में निर्भय घूमते मृगशावक | खुले में निर्भय घूमते मृगशावक | ||
− | गोधूली बेला में गौएँ | + | गोधूली बेला में गौएँ रम्भाती हैं |
दूर आकाश में उठ रही धूम-शिखा | दूर आकाश में उठ रही धूम-शिखा | ||
फैल रहा शुचित मन का सुवास है । | फैल रहा शुचित मन का सुवास है । | ||
− | + | वहाँ, उस खुले में ही तुम्हारा घर है । | |
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10:34, 10 मार्च 2024 के समय का अवतरण
वहाँ, उस खुले में ही तुम्हारा घर है ।
खुले के हर ओर फैला महावन है
सघन लता-गुल्मों, वृक्षों, झाड़ी-झँखाड़ से
गूँजित हिंस्र पशुओं की अमुखर चीख़ों से
अलँघ्य राहों पर लुप्त पदचिह्नों से ।
खुला अभी बचा है वन के फैलाव से
धरती पर कच्छप पीठ-सा उठा हुआ
अजानी, अदेखी, संकरी पगडण्डी है
पैतृक आवाज़ें वहाँ ले आती हैं ।
खुले में निर्भय घूमते मृगशावक
गोधूली बेला में गौएँ रम्भाती हैं
दूर आकाश में उठ रही धूम-शिखा
फैल रहा शुचित मन का सुवास है ।
वहाँ, उस खुले में ही तुम्हारा घर है ।