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"नदी नीलकंठ नहीं होती / निर्देश निधि" के अवतरणों में अंतर

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कभी वह थी चंचला नदी,
 
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मैं खुश थी, नदी के किनारे की चट्टान होकर
 
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मेरी देह का परिरम्भ कर, लांघ गए सब सीमाएँ
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उसकी देह से कोख, अंतड़ियों और दिल के साथ
 
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निकाल ली थी तुमने मास–मज्जा तक उसकी
 
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कई बार महसूस की थीं मैंने उसकी सिसकिया अट्टालिकाओं में
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देखी थी कई बार मैंने
 
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सड़कों की भीतरी सतह में आँसू बहाती, वह नदी
 
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उसके पास नहीं थी कोई नदी, ख़ुद उसके जैसी
 
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मैं उसकी सूनी छाती पर निढाल पड़ी
 
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चुपचाप देखती उसके मुंह पर मैला कपड़ा रख
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उसकी नाक का दबाया जाना
 
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देखती उसका तड़पना एक-एक सांस के लिए
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देखती उसका तड़पना एक-एक साँस के लिए
 
मेरे कण–कण रेत हो जाने से
 
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कहीं दुखकर थी उसकी वह तड़पन
 
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नदी, जो सदियों छलकती रही थी किनारों से
 
नदी, जो सदियों छलकती रही थी किनारों से
पर इस सदी, शेष थीं बस चंद सांसें उसमें
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दुर्गंध भरी, हाँफती, अंतिम, चंद सांसें
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मैंने कितनी मिन्नतें की थीं तुमसे
 
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भर दो कुछ सांस उसके सीने में
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अपने अधर रखकर उसके अधरों पर
 
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लौटा दो उसकी सकल सम्पदा
 
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जो बलात छीन ली थी तुमने
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जो चाहो मेरे कणों तक का शेष रह जाना
 
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तो खींच लो सिंगियाँ लगाकर
 
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उसकी देह में फैला, सारा का सारा विष
 
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नदी नीलकंठ नहीं होती
 
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नदी शिव नहीं होती।
 
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01:40, 19 नवम्बर 2024 के समय का अवतरण

  
कभी वह थी चंचला नदी,
और मैं बेलगाम अरमानों वाली अल्हड़,
मैं उसके पावन जल का आचमन करती
सब तृष्णाओं, कुंठाओं को सिराती उसकी उद्दाम उर्मियों में
खड़ी थी उसके दाहिने किनारे पर
बनकर सतर चट्टान
मैं खुश थी, नदी के किनारे की चट्टान होकर
एक दिन तुम आए और
मेरी देह का परिरम्भ कर, लाँघ गए सब सीमाएँ
तुम्हारा वह गंदला स्पर्श,
भाया नहीं था मुझे
मैं झर गई थी पल में, कण-कण रेत सी
जा पसरी थी नदी की सूनी छाती पर
तब जानी थी मैं कि नदी,
नहीं थी सिर्फ़ बहता पानी
वह तो थी इतिहास लिपिबद्ध करती निपुण इतिहासकार,
संस्कृतियाँ रचकर, परम्पराएँ सहेजती ज़िम्मेदार पुरखिन,
अपनी मर्ज़ी से रास्ते बदलती सशक्त आधुनिका भी थी वह
और थी धरती का भूगोल साधती साधक
वह तो थी सदेह रचयिता ममतामयी माँ,
तभी तो जानी थी मैंने पीड़ा नदी की
उसकी देह से कोख, अंतड़ियों और दिल के साथ
निकाल ली थी तुमने मास–मज्जा तक उसकी
कई बार महसूस की थीं मैंने उसकी सिसकियाँ अट्टालिकाओं में
देखी थी कई बार मैंने
सड़कों की भीतरी सतह में आँसू बहाती, वह नदी
वह बिखर जाना चाहती थी होकर कण–कण
ठीक मेरी तरह
बचकर तुम्हारे गंदले स्पर्शों से
पर जाती किधर, समाती कहाँ?
उसके पास नहीं थी कोई नदी, ख़ुद उसके जैसी
मैं उसकी सूनी छाती पर निढाल पड़ी
चुपचाप देखती उसके मुँह पर मैला कपड़ा रख
उसकी नाक का दबाया जाना
देखती उसका तड़पना एक-एक साँस के लिए
मेरे कण–कण रेत हो जाने से
कहीं दुखकर थी उसकी वह तड़पन
नदी, जो सदियों छलकती रही थी किनारों से
पर इस सदी, शेष थीं बस चंद साँसें उसमें
दुर्गंध भरी, हाँफती, अंतिम, चंद साँसें
मैंने कितनी मिन्नतें की थीं तुमसे
भर दो कुछ साँस उसके सीने में
अपने अधर रखकर उसके अधरों पर
लौटा दो उसकी सकल सम्पदा
जो बलात् छीन ली थी तुमने
जो चाहो मेरे कणों तक का शेष रह जाना
तो खींच लो सिंगियाँ लगाकर
उसकी देह में फैला, सारा का सारा विष
सुनो,
नदी जी नहीं सकती विष पीकर;
क्योंकि
नदी नीलकंठ नहीं होती
नदी शिव नहीं होती।