"बिना चौखट का घर / जयप्रकाश मानस" के अवतरणों में अंतर
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+ | शायद पेड़ के नीचे, जहाँ पत्तों की छाया टहलती है | ||
+ | या फिर नदी के किनारे | ||
+ | जहाँ पानी की लकीरें कुछ कहती हैं | ||
+ | घर नहीं, बस एक ठिकाना | ||
+ | जैसे कोई बच्चा मिट्टी में उँगली घुमाए | ||
+ | और आकृति बन जाए | ||
+ | वो आकृति, जो न घर है, न बाहर | ||
+ | बस एक जगह, जहाँ हवा रुककर साँस लेती है | ||
+ | खपरैल की छत होगी, टूटी-सी | ||
+ | उसमें से चाँद का टुकड़ा झाँकेगा | ||
+ | या शायद तारा जो रात को भूल गया हो | ||
+ | दरवाजा नहीं - दरवाज़ा तो बाँधता है | ||
+ | बिना चौखट, क्योंकि चौखट तो हिसाब माँगती है | ||
+ | आँगन में धूल होगी - उसमें पैरों के निशान | ||
+ | किसी के आने के या किसी के चले जाने के | ||
+ | या शायद हवा के जो बिना बुलाए चली आए | ||
+ | गाँव की गली में, जहाँ बकरी चरती है, | ||
+ | या खेत की मेड़ पर, | ||
+ | जहाँ घास अपने मन से उगती है, | ||
+ | वो घर नहीं, बस एक एहसास है | ||
+ | जैसे कोई पुराना गीत, जो होंठों पर ठहर जाए | ||
+ | या कोई नाम, जो याद आए, पर पूरा न आए | ||
+ | वो घर माटी का है, पर माटी से हल्क़ा | ||
+ | वो घर हवा का है, पर हवा से भारी | ||
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+ | कोई पूछे, कहाँ है ऐसा घर? | ||
+ | तो कहना - वो कहीं नहीं, फिर भी हर कहीं है | ||
+ | जैसे साइकिल की घंटी, जो गली में गूँजे | ||
+ | या जैसे पनघट का पानी, जो मटके में ठहरे | ||
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+ | बिना चौखट वाला घर, मन का कोना है, | ||
+ | जो ढूँढे, उसे मिले; | ||
+ | जो न ढूँढे, वो भी कहीं उसी घर में खड़ा हो। | ||
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20:09, 8 जुलाई 2025 के समय का अवतरण
बिना चौखट का घर
शायद पेड़ के नीचे, जहाँ पत्तों की छाया टहलती है
या फिर नदी के किनारे
जहाँ पानी की लकीरें कुछ कहती हैं
घर नहीं, बस एक ठिकाना
जैसे कोई बच्चा मिट्टी में उँगली घुमाए
और आकृति बन जाए
वो आकृति, जो न घर है, न बाहर
बस एक जगह, जहाँ हवा रुककर साँस लेती है
खपरैल की छत होगी, टूटी-सी
उसमें से चाँद का टुकड़ा झाँकेगा
या शायद तारा जो रात को भूल गया हो
दरवाजा नहीं - दरवाज़ा तो बाँधता है
बिना चौखट, क्योंकि चौखट तो हिसाब माँगती है
आँगन में धूल होगी - उसमें पैरों के निशान
किसी के आने के या किसी के चले जाने के
या शायद हवा के जो बिना बुलाए चली आए
गाँव की गली में, जहाँ बकरी चरती है,
या खेत की मेड़ पर,
जहाँ घास अपने मन से उगती है,
वो घर नहीं, बस एक एहसास है
जैसे कोई पुराना गीत, जो होंठों पर ठहर जाए
या कोई नाम, जो याद आए, पर पूरा न आए
वो घर माटी का है, पर माटी से हल्क़ा
वो घर हवा का है, पर हवा से भारी
कोई पूछे, कहाँ है ऐसा घर?
तो कहना - वो कहीं नहीं, फिर भी हर कहीं है
जैसे साइकिल की घंटी, जो गली में गूँजे
या जैसे पनघट का पानी, जो मटके में ठहरे
बिना चौखट वाला घर, मन का कोना है,
जो ढूँढे, उसे मिले;
जो न ढूँढे, वो भी कहीं उसी घर में खड़ा हो।
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