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विष्णु खरे के लिए

काव्य-कला, रस, छन्द, अलंकार और बिम्बों के साथ-साथ
इतिहास और पुराण की गहरी परख थी उन्हें और वे जानते
थे कि 1917 के रूस और 1949 के चीन में जो भी हुआ हो
आम तौर पर विद्रोही बेरहमी से कतर दिए जाते हैं। वे
जानते थे कि अवनति के दारुण क्षणों में शुभाकांक्षी
संरक्षक भी नहीं प्रदान कर पाते कोई सम्बल
अपमानित शिल्पी को और बहुत काम का नहीं रह
जाता है कोई भी कवि जीवन का विषम विष पीने के बाद।
बाद में भले ही उसके नाम पर फीठ और पुरस्कार
स्थापित हों, सम्मानित किया जाए चिर काल से
रहा आने वाला गुणी जनों का विनोद।।

किसी दूसरे जन्म में नहीं रह गया था, इसलिए
उनका विश्वास। खण्डित हो चुकी थी आने वाली
पीढ़ियों के प्रति उनकी आस्था। वे चाहते थे जो
भी मिलना है मिले प्राण रहते-रहते। मृत्यु के
बाद तो शव पर डाला गया ऊनी दोशाला भी
गर्मी नहीं देता निष्प्राण तन को।।

काव्य-शास्त्र और इतिहास के अलावा, हैरत
में न पड़ें आप, क्रिकेट में भी गहरी पैठ थी
उनकी। कैसी भी गेंद हो, उन्हें आती थी उसे
झेलने के लिए उपयुक्त ड्राइव बल्ले की और
उन्हें मालूम था सेफ़ खेला जाए तो
बहुत-कुछ हासिल हो सकता है जीवन की
एक फीकी, बेरंग और निस्तेज पारी से।।