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20:56, 11 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण
ये दरख़्त हैं एक सियाह और दर्द-भरी
पथरायी चाहना।
पृथ्वी से बोझिल। और मेरे शब्द
रात और हवा और पतझड़ से सयुज्ज
उड़ते हैं चुपचाप। तप्त तरंग
बिम्बों की मेरे ज़रिये, स्वप्नों की
इत्यादि है मौजूद।
यह मेरे दिल की हवेली नहीं है।
इस तट से लगी, पहाडियाँ,
जानिब एक बर्फ़ीली खाड़ी,
कलपती हुई, ध्वनित एक पक्षी-क्रंदन।
एक भूमि खड़ी है चौकस, और इंतज़ार करती है
अपनी आज़ादी का, जाडे़ का नामकरण।
यह दरख़्त है ऐसे बिना उम्मीद के।
यह अजोत ज़मीन है ऐसे
जाम अपनी सियाह शान्ति में।
और यह रात है। मैं हूँ खड़ा और सुनता
एक फुसफुसाहट कहीं--
वह मेरा समुद्र है जो जम रहा है ऊपर।
लेकिन समुद्र ऊपर हवा के सवार जाते हैं
--घोड़ा पिछले पैरों पर खड़ा होता है भोर के बरक्स !
क्या यह मेरी धड़कन है ? इसके टापों की ताल
सुनहली नालों संग--
मेरा दिल अपने स्वप्न के बरक्स पिछले पैरों पर खड़ा होता है।
अंग्रेजी से भाषान्तरः पीयूष दईया