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इन्द्रियों की थकान में
याद आता है अत्यधिक अपना तन
जो आदत के भुलावे में रहा
सगरदिन
ज़र्द पन्ने की मानिन्द
फटने को आमादा होती है त्वचा
रक्त की अचिरावती
ढहाना की चाहती हर तट
बेक़रारी रिसती है नाख़ून तक से
अटाटूट ढहता है दिल
मांगता है पनाह
ठाँव-कुठाँव का आभिजात्य भेद भी
ऎसे ही असहाय समय में
दुनिया के असंख्य बेक़रारों की समवेत प्रार्थना
दुहराती है रग-रग
एक उसी 'आवारा' के समक्ष
जिससे अनुनय करता है
कठिन वक़्तों का हमारा अधिक सजग कवि
-आलोक धन्वा भी।