भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"नदी (एक) / शरद बिलौरे" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद बिलौरे |संग्रह=तय तो यही हुआ था / शरद बिलौरे }...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
08:43, 7 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
मैं बहुत डर गया था नदी के मौन से
नदी को इतना ख़ामोश
पहले कभी नहीं देखा
पत्थर फेंकने पर भी
कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई।
माँ ने कल से कुछ भी नहीं खाया है।
मैं बूढ़े मछुआरे से पूछता हूँ
काका
क्या कोई निदान है
नदी की ख़ामोशी दूर करने का।
बूढ़ा कहता है
बेटा नदी का मौन बहुत ख़तरनाक होता है
गाँव के गाँव लील जाती है इसकी चुप्पी
इसे तोड़ने के लिए
यज्ञ करना होता है
नर बलि देनी होती है।
मैं रात सपने में देखता हूँ
मेरे माथे पर सिन्दूर का टीका खिंचा है
और माँ की थाली में
रोटी रखी है।