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"रात होते-प्रात होते / अज्ञेय" के अवतरणों में अंतर

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प्रात होते –
 
प्रात होते –
 
 
सबल पंखों की मीठी एक चोट से
 
सबल पंखों की मीठी एक चोट से
 
 
अनुगता मुझ को बना कर बावली को –
 
अनुगता मुझ को बना कर बावली को –
 
 
जान कर मैं अनुगता हूँ –
 
जान कर मैं अनुगता हूँ –
 
 
उस विदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी
 
उस विदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी
 
 
श्रुता (?) हूँ –
 
श्रुता (?) हूँ –
 
 
उड़ गया वह पंछी बावला
 
उड़ गया वह पंछी बावला
 
 
पंछी सुनहला
 
पंछी सुनहला
 
 
कर प्रहर्षित देह की रोमावली को :
 
कर प्रहर्षित देह की रोमावली को :
 
 
प्रात होते
 
प्रात होते
 
 
वही जो
 
वही जो
 
 
थके पंखों को समेटे –
 
थके पंखों को समेटे –
 
 
आसरे की माँग पर विश्वास की चादर लपेटे –
 
आसरे की माँग पर विश्वास की चादर लपेटे –
 
 
चञ्चु की उन्मुख विकलता के सहारे
 
चञ्चु की उन्मुख विकलता के सहारे
 
 
नम रही ग्रीवा उठाये –
 
नम रही ग्रीवा उठाये –
 
 
सिहरता-सा, काँपता-सा,
 
सिहरता-सा, काँपता-सा,
 
 
नीड़ की-नीड़स्थ की सब कुछ की प्रतीक्षा भाँपता-सा,
 
नीड़ की-नीड़स्थ की सब कुछ की प्रतीक्षा भाँपता-सा,
 
 
निकट अपनों के निकटतर भवितव्य की अपनी प्रतीज्ञा के
 
निकट अपनों के निकटतर भवितव्य की अपनी प्रतीज्ञा के
 
 
निकटतम इस वि-बुध सपनों की सखी के
 
निकटतम इस वि-बुध सपनों की सखी के
 
 
आ गया था
 
आ गया था
 
 
आ गया था
 
आ गया था
 
 
रात होते ?
 
रात होते ?
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01:29, 8 जनवरी 2009 का अवतरण

प्रात होते –
सबल पंखों की मीठी एक चोट से
अनुगता मुझ को बना कर बावली को –
जान कर मैं अनुगता हूँ –
उस विदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी
श्रुता (?) हूँ –
उड़ गया वह पंछी बावला
पंछी सुनहला
कर प्रहर्षित देह की रोमावली को :
प्रात होते
वही जो
थके पंखों को समेटे –
आसरे की माँग पर विश्वास की चादर लपेटे –
चञ्चु की उन्मुख विकलता के सहारे
नम रही ग्रीवा उठाये –
सिहरता-सा, काँपता-सा,
नीड़ की-नीड़स्थ की सब कुछ की प्रतीक्षा भाँपता-सा,
निकट अपनों के निकटतर भवितव्य की अपनी प्रतीज्ञा के
निकटतम इस वि-बुध सपनों की सखी के
आ गया था
आ गया था
रात होते ?