भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"पद / गोरखनाथ" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
  
  
रहता हमारै गुरु बोलेये, हम रहता का चेला ।  
+
रहता हमारै गुरु बोलेये, हम रहता का चेला । < br >
मन मानै तौ संगि फिरै, निंहतर फिरै अकेला ।।  
+
मन मानै तौ संगि फिरै, निंहतर फिरै अकेला ।। < br >
अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी तामैं झिलिमिलि जोति उजाली ।  
+
अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी तामैं झिलिमिलि जोति उजाली । < br >
जहाँ जोग तहाँ रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुर करनां ।
+
जहाँ जोग तहाँ रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुर करनां । < br >
तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरनां ।।  
+
तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरनां ।। < br >
काल न मिट्या जंजाल न छुट्या, तप करि हुवा न सूरा ।  
+
काल न मिट्या जंजाल न छुट्या, तप करि हुवा न सूरा । < br >
कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पूरा ।।  
+
कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पूरा ।। < br >
सप्त धात्त का काया पींजरा, ता महिं जुगति बिन सूवा ।  
+
सप्त धात्त का काया पींजरा, ता महिं जुगति बिन सूवा । < br >
सतगुर मिलै तो ऊबरै बाबू, नहीं तौ परलै हूवा ।  
+
सतगुर मिलै तो ऊबरै बाबू, नहीं तौ परलै हूवा । < br >
कंद्रप रूप काया का मंडण, अँबिरथा कांई उलींचौ ।  
+
कंद्रप रूप काया का मंडण, अँबिरथा कांई उलींचौ । < br >
 
गोरष कहैं सुणौं रे भौंदू, अंरड अँमीं कत सींचौ ।
 
गोरष कहैं सुणौं रे भौंदू, अंरड अँमीं कत सींचौ ।

00:32, 13 अगस्त 2006 का अवतरण

कवि: गोरखनाथ

~*~*~*~*~*~*~*~


रहता हमारै गुरु बोलेये, हम रहता का चेला । < br > मन मानै तौ संगि फिरै, निंहतर फिरै अकेला ।। < br > अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी तामैं झिलिमिलि जोति उजाली । < br > जहाँ जोग तहाँ रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुर करनां । < br > तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरनां ।। < br > काल न मिट्या जंजाल न छुट्या, तप करि हुवा न सूरा । < br > कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पूरा ।। < br > सप्त धात्त का काया पींजरा, ता महिं जुगति बिन सूवा । < br > सतगुर मिलै तो ऊबरै बाबू, नहीं तौ परलै हूवा । < br > कंद्रप रूप काया का मंडण, अँबिरथा कांई उलींचौ । < br > गोरष कहैं सुणौं रे भौंदू, अंरड अँमीं कत सींचौ ।