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01:20, 13 अगस्त 2006 का अवतरण

कवि: नरेश मेहता

~*~*~*~*~*~*~*~

मैं नहीं जानता

क्योंकि नहीं देखा है कभी-

पर, जो भी

जहाँ भी लीपता होता है

गोबर के घर-आँगन,

जो भी

जहाँ भी प्रतिदिन दुआरे बनाता होता है

आटे-कुंकुम से अल्पना,

जो भी

जहाँ भी लोहे की कड़ाही में छौंकता होता है

मैथी की भाजी,

जो भी

जहाँ भी चिंता भरी आँखें लिये निहारता होता है

दूर तक का पथ-

वही,

हाँ, वही है माँ ! !