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01:19, 13 अगस्त 2006 का अवतरण

कवि: केदारनाथ अग्रवाल

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पहला पानी गिरा गगन से

उमँड़ा आतुर प्यार,

हवा हुई, ठंढे दिमाग के जैसे खुले विचार ।

भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह,

भीगा अनभीगे अंगों की

अमराई का नेह

पात-पात की पाती भीगी-पेड़-पेड़ की डाल,

भीगी-भीगी बल खाती है

गैल-छैल की चाल ।

प्राण-प्राणमय हुआ परेवा,भीतर बैठा, जीव,

भोग रहा है

द्रवीभूत प्राकृत आनंद अतीव ।

रूप-सिंधु की

लहरें उठती,

खुल-खुल जाते अंग,

परस-परस

घुल-मिल जाते हैं

उनके-मेरे रंग ।

नाच-नाच

उठती है दामिने

चिहुँक-चिहुँक चहुँ ओर

वर्षा-मंगल की ऐसी है भीगी रसमय भोर ।

मैं भीगा,

मेरे भीतर का भीगा गंथिल ज्ञान,

भावों की भाषा गाती है

जग जीवन का गान ।