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"अहमद फ़राज़ / परिचय" के अवतरणों में अंतर

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*इस से पहले के बे-वफ़ा हो जाएं<br> क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं<br>
 
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दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला<br>
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*दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला<br>वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला <br>
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला <br>
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*वक़्त ने वो ख़ाक उड़ाई है के दिल के दश्त से<br>क़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर भी नक़्श-ए-पा कोई नहीं<br>
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क़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर भी नक़्श-ए-पा कोई नहीं<br>
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*करूँ न याद अगर किस तरह भुलाऊँ उसे<br>ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे <br>
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*जो भी दुख याद न था याद आया<br>आज क्या जानिए क्या याद आया<br>याद आया था बिछड़ना तेरा<br>फिर नहीं याद कि क्या याद आया<br>
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे <br>
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*तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो<br>अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो<br>कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा<br>कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो <br>
जो भी दुख याद न था याद आया<br>
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आज क्या जानिए क्या याद आया<br>
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*अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें<br>जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें<br>ढूँढ उजड़े हु्ए लोगों में वफ़ा के मोती<br>ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें<br>तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा<br>दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें.<br>
याद आया था बिछड़ना तेरा<br>
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कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा<br>
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अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें<br>
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जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें<br>
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ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें<br>
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तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा<br>
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दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें.<br>
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20:08, 11 जनवरी 2009 का अवतरण

पाकिस्तान के सुप्रसिद्ध शायर अहमद फ़राज़ का निधन हो गया है. वो 77 वर्ष के थे. फ़राज़ पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे और इलाज के लिए अमरीका भी गए थे.

ग़ज़ल गायक मेहदी हसन की आवाज़ में अहमद फ़राज़ की ग़ज़ल- रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
दुनिया भर में इतनी लोकप्रिय हुई कि एक बार अहमद फ़राज़ ने कहा कि मेहदी साहब ने इस ग़ज़ल को इतनी अच्छी तरह गाया है कि यह उनकी ही ग़ज़ल हो चुकी है.

अहमद फ़राज़ पाकिस्तान में जितने लोकप्रिय रहे उतने वह भारत में भी थे. पिछले दिनों वह भारत में काफ़ी रहे, वह इसे अपना दूसरा घर भी कहते थे.

भारत के किसी भी बड़े मुशायरे में उनकी शिरकत ज़रूरी समझी जाती थी. यही बात है कि पिछले दिनों होने वाले शंकर-शाद मुशायरे के अलावा जश्ने-बहार में भी वह उपस्थित थे और उन्होंने लोगों की फ़रमाइश पर अपनी मशहूर लंबी ग़ज़ल, 'सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं, सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं', बार बार पढ़ी.


अहमद फ़राज़ मुशायरों की जान हुआ करते थे

अहमद फ़राज़ ने एक बार कहा था कि पाकिस्तान में विरोध की कविता दम तोड़ चुकी है लेकिन जनता का विरोध जारी है. उन्होंने कहा कि हमने पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान सरकार को लौटा दिया मगर फिर भी शायरी में अब वह विरोध देखने में नहीं आता है.

उनकी शायरी सिर्फ़ मुहब्बत की राग-रागिनी नहीं थी बल्कि वह समसामयिक घटनाओं और सियासत पर तीखी टिप्पणी भी होती थी. फ़राज़ की तुलना इक़बाल और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे बड़े शायरों से की गई है.

अहमद फ़राज़ की यह पंक्तियां याद आती हैं जो उनके जाने को अच्छी तरह बयान करती हैं:

क्या ख़बर हमने चाहतों में फ़राज़
क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे

उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कहा कि दुखी लोगों ने मुझे बहुत प्यार दिया. उनका एक मशहूर शेर है:

अब और कितनी मुहब्बतें तुम्हें चाहिए फ़राज़,
माओं ने तेरे नाम पे बच्चों के नाम रख लिए.

उन्हें 2004 में पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान हिलाले-इम्तियाज़ दिया गया जिसे उन्होंने बाद में विरोध प्रकट करते हुए वापस कर दिया.

उनकी कविताओं के 13 संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उन सब को उन्होंने शहरे-सुख़न के नाम से प्रकाशित किया है. भारत में हिंदी में उनकी कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं. ख़ानाबदोश चाहतों के नाम से उनकी प्रमुख कविताएं और गज़लें हिंदी में छपी हैं.

अहमद फ़राज़ के कुछ लोकप्रिय अशआरः


  • इस से पहले के बे-वफ़ा हो जाएं
    क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं
  • दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
    वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला
  • वक़्त ने वो ख़ाक उड़ाई है के दिल के दश्त से
    क़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर भी नक़्श-ए-पा कोई नहीं
  • करूँ न याद अगर किस तरह भुलाऊँ उसे
    ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
  • जो भी दुख याद न था याद आया
    आज क्या जानिए क्या याद आया
    याद आया था बिछड़ना तेरा
    फिर नहीं याद कि क्या याद आया
  • तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो
    अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो
    कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा
    कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो
  • अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
    जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
    ढूँढ उजड़े हु्ए लोगों में वफ़ा के मोती
    ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
    तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
    दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें.