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पंछी उड़ते हैं | पंछी उड़ते हैं | ||
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मौसम और आदमी से निराश | मौसम और आदमी से निराश | ||
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नहीं बैठते अब वे | नहीं बैठते अब वे | ||
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छत की मुँडेरों पर | छत की मुँडेरों पर | ||
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घूमते हैं गाँव-गाँव | घूमते हैं गाँव-गाँव | ||
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नगर-नगर | नगर-नगर | ||
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यायावर | यायावर | ||
करते विहंगावलोकन | करते विहंगावलोकन | ||
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नीचे तो गलियाँ हैं | नीचे तो गलियाँ हैं | ||
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बिन्दुहीन बहस की तरह | बिन्दुहीन बहस की तरह | ||
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एक दूसरे को काटतीं | एक दूसरे को काटतीं | ||
बरामदे हैं आबनूसी | बरामदे हैं आबनूसी | ||
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जिनमें | जिनमें | ||
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सहम सहम उतरती है धूप | सहम सहम उतरती है धूप | ||
पंछी हैं उडऩशील | पंछी हैं उडऩशील | ||
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निरभ्र आसमानों में | निरभ्र आसमानों में | ||
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जमीन से वीतराग | जमीन से वीतराग | ||
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नहीं रही अब वह | नहीं रही अब वह | ||
− | |||
रहने लायक | रहने लायक | ||
पंछी अब गाते नहीं, रोते हैं | पंछी अब गाते नहीं, रोते हैं | ||
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इन्हें चाहिए प्यार | इन्हें चाहिए प्यार | ||
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चुटकी भर चुग्गा | चुटकी भर चुग्गा | ||
− | + | कटोरी भर पानी | |
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कहाँ गयीं अब वे धर्मभीरु बुढिय़ाएँ | कहाँ गयीं अब वे धर्मभीरु बुढिय़ाएँ | ||
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जो खिलाती थीं चुग्गा-चूरी | जो खिलाती थीं चुग्गा-चूरी | ||
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पिलातीं कटोरों में पानी | पिलातीं कटोरों में पानी | ||
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माया को मानतीं जीवों का संसार? | माया को मानतीं जीवों का संसार? | ||
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पंछियों का नहीं रहा | पंछियों का नहीं रहा | ||
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अब कोई घर | अब कोई घर | ||
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वे पहले भी थे यायावर | वे पहले भी थे यायावर | ||
अब वे बैठें भी | अब वे बैठें भी | ||
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तो किस टहनी पर | तो किस टहनी पर | ||
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सभी ने तो थामी हैं गुलेलें | सभी ने तो थामी हैं गुलेलें | ||
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डरते हैं अब वे | डरते हैं अब वे | ||
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उस पीपल से भी | उस पीपल से भी | ||
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जिसकी टहनियों पर | जिसकी टहनियों पर | ||
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बनाये थे इन्होंने घरौंदे | बनाये थे इन्होंने घरौंदे | ||
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पीपल नहीं रहा अब वह पीपल | पीपल नहीं रहा अब वह पीपल | ||
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बन गया है साँपों का घर | बन गया है साँपों का घर | ||
इसीलिये वे उड़ते हैं दिन भर | इसीलिये वे उड़ते हैं दिन भर | ||
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साँझ ढले बस्तियों के बाहर | साँझ ढले बस्तियों के बाहर | ||
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वृन्तहीन वीरानों में | वृन्तहीन वीरानों में | ||
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पंछी क्रते हैं बसेरा | पंछी क्रते हैं बसेरा | ||
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सच, | सच, | ||
कितनी दर्दनाक् है | कितनी दर्दनाक् है | ||
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पंछियों की यह दास्तान! | पंछियों की यह दास्तान! | ||
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03:06, 12 जनवरी 2009 का अवतरण
पंछी उड़ते हैं
मौसम और आदमी से निराश
नहीं बैठते अब वे
छत की मुँडेरों पर
घूमते हैं गाँव-गाँव
नगर-नगर
यायावर
करते विहंगावलोकन
नीचे तो गलियाँ हैं
बिन्दुहीन बहस की तरह
एक दूसरे को काटतीं
बरामदे हैं आबनूसी
जिनमें
सहम सहम उतरती है धूप
पंछी हैं उडऩशील
निरभ्र आसमानों में
जमीन से वीतराग
नहीं रही अब वह
रहने लायक
पंछी अब गाते नहीं, रोते हैं
इन्हें चाहिए प्यार
चुटकी भर चुग्गा
कटोरी भर पानी
कहाँ गयीं अब वे धर्मभीरु बुढिय़ाएँ
जो खिलाती थीं चुग्गा-चूरी
पिलातीं कटोरों में पानी
माया को मानतीं जीवों का संसार?
पंछियों का नहीं रहा
अब कोई घर
वे पहले भी थे यायावर
अब वे बैठें भी
तो किस टहनी पर
सभी ने तो थामी हैं गुलेलें
डरते हैं अब वे
उस पीपल से भी
जिसकी टहनियों पर
बनाये थे इन्होंने घरौंदे
पीपल नहीं रहा अब वह पीपल
बन गया है साँपों का घर
इसीलिये वे उड़ते हैं दिन भर
साँझ ढले बस्तियों के बाहर
वृन्तहीन वीरानों में
पंछी क्रते हैं बसेरा
सच,
कितनी दर्दनाक् है
पंछियों की यह दास्तान!