"चाह / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर
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मुझे ऐसे मैदान दिखाओ | मुझे ऐसे मैदान दिखाओ | ||
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मेरे मालिक | मेरे मालिक | ||
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जहाँ हाथी | जहाँ हाथी | ||
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हवाओं की तरह चलें | हवाओं की तरह चलें | ||
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और हवाएँ झूमें | और हवाएँ झूमें | ||
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हाथियों की तरह | हाथियों की तरह | ||
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अकेली चलें | अकेली चलें | ||
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और चिंघाड़ें भी | और चिंघाड़ें भी | ||
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उनके न हों कान | उनके न हों कान | ||
− | + | पर वे ख़ुद सुनें | |
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कानों की तरह | कानों की तरह | ||
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अपनी सूंड से लिखें वे | अपनी सूंड से लिखें वे | ||
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रेत पर चित्र | रेत पर चित्र | ||
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अन्दर के विस्तार में | अन्दर के विस्तार में | ||
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जहाँ बिखरे हों | जहाँ बिखरे हों | ||
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शंख, सीपियाँ, घोंघे | शंख, सीपियाँ, घोंघे | ||
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कछुओं के पिंजर | कछुओं के पिंजर | ||
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उतर गया हो चेतना का समुद्र | उतर गया हो चेतना का समुद्र | ||
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और मैं खोजूँ | और मैं खोजूँ | ||
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अनन्त रेत में | अनन्त रेत में | ||
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जिन्हें शब्द बदलें | जिन्हें शब्द बदलें | ||
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मरीचिकाओं में | मरीचिकाओं में | ||
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और वे मरीचिकाएँ | और वे मरीचिकाएँ | ||
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मायावी तितलियों का रूप धर | मायावी तितलियों का रूप धर | ||
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उतरें मेरे पृष्ठ पर | उतरें मेरे पृष्ठ पर | ||
− | + | एकाएक जब दरवाज़े की तरह | |
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खुले मेरा मस्तक | खुले मेरा मस्तक | ||
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मैं देखूँ अन्दर | मैं देखूँ अन्दर | ||
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खुलते हुए लगातार | खुलते हुए लगातार | ||
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एक के बाद एक | एक के बाद एक | ||
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अनेक दृश्य | अनेक दृश्य | ||
− | + | आवाज़ न हो उनकी | |
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वे हों धूमायमान | वे हों धूमायमान | ||
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सपनों की तरह | सपनों की तरह | ||
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और सपनें हो भूदृश्य | और सपनें हो भूदृश्य | ||
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वे उड़ें एक साथ | वे उड़ें एक साथ | ||
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पक्षियों की तरह | पक्षियों की तरह | ||
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और खुलने लगें आसमान | और खुलने लगें आसमान | ||
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हाथी तब | हाथी तब | ||
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बदल जाएँ हवाओं में | बदल जाएँ हवाओं में | ||
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और हवाएँ झूमें | और हवाएँ झूमें | ||
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हाथियों की तरह। | हाथियों की तरह। | ||
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03:46, 12 जनवरी 2009 का अवतरण
मुझे ऐसे मैदान दिखाओ
मेरे मालिक
जहाँ हाथी
हवाओं की तरह चलें
और हवाएँ झूमें
हाथियों की तरह
अकेली चलें
और चिंघाड़ें भी
उनके न हों कान
पर वे ख़ुद सुनें
कानों की तरह
अपनी सूंड से लिखें वे
रेत पर चित्र
अन्दर के विस्तार में
जहाँ बिखरे हों
शंख, सीपियाँ, घोंघे
कछुओं के पिंजर
उतर गया हो चेतना का समुद्र
और मैं खोजूँ
अनन्त रेत में
एक ख़ूबसूरत नख़लिस्तान
जिन्हें शब्द बदलें
मरीचिकाओं में
और वे मरीचिकाएँ
मायावी तितलियों का रूप धर
उतरें मेरे पृष्ठ पर
एकाएक जब दरवाज़े की तरह
खुले मेरा मस्तक
मैं देखूँ अन्दर
खुलते हुए लगातार
एक के बाद एक
अनेक दृश्य
आवाज़ न हो उनकी
वे हों धूमायमान
सपनों की तरह
और सपनें हो भूदृश्य
वे उड़ें एक साथ
पक्षियों की तरह
और खुलने लगें आसमान
हाथी तब
बदल जाएँ हवाओं में
और हवाएँ झूमें
हाथियों की तरह।