भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"माँ / श्रीनिवास श्रीकांत" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) |
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
}} | }} | ||
<poem> | <poem> | ||
− | |||
घर में होती है एक औरत | घर में होती है एक औरत | ||
जिसे कहते हैं माँ | जिसे कहते हैं माँ |
02:41, 13 जनवरी 2009 का अवतरण
घर में होती है एक औरत
जिसे कहते हैं माँ
वह होती है
कामयाब कीमियागर
लोहे को सोने में बदलती
एक ऐसा जनन वृक्ष है माँ
पीपल और बरगद से भी
ज्य़ादा पूजनीय
बड़ा
जिसने पार कीं
दर्द और दुख की
लालान्तर नदियाँ
काल के
अन्धेरे अन्तराल
सात धातुएँ तो हैं
सभी में
मगर एक गुण ओज
है उसमें ही
जिसका वह करती
आँचल भर-भर दान
एक- एक कर
अपने अनेक वंशजों को
हों सुर, मुनि या दानव
यह औरत है विश्वात्मा का
एक नायाब उपहार
कोये की तरह बुनती
वह कुटुम्ब के लिये रेशम
रानी की तरह
मोम और शहद के घर।