"प्रस्ताव / धूमिल" के अवतरणों में अंतर
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20:03, 23 जनवरी 2009 के समय का अवतरण
लिखो बसंत!
ठीक-बस-अंत लिखो।
हवा और रक्त की हरकत का रुख
सूरज की तरफ़ है
सूरज का रुख है तुम्हारे चेहरे की ओर
ए झुकी हुई गरदन!
थुक्का ज़िंदगी!!
तुम्हारा चेहरा किधर है
क्या सचमुच तुम्हारे गुस्से की बगल में
खड़ा हो रहा है पत्तों में
बजता हुआ चाकुओं का शोर?
तब लिखो बसंत
पेड़ पर नहीं
चेहरों पर लिखो!
मैंने कहा... खून सनी अँगुलियों
और अभाव के बीच
हमले का खुला निशान है ए साथी!
जब खून में दौड़ती है आग
चेहरा आँसू से धुलता है
उस वक्त इतिहास का हरेक घाव
तजुरबे की दीवार में
मुक्के-सा खुलता है ए साथी!
तुमने कहा...
दुर्घटनाओं का सिलसिला
जारी है भूख
हडि्डयों में बज रही है।
पत्तियों की चीख के बावजूद
पेड़ों को वन महोत्सव से
बाहर कर दिया गया है।
फिर भी लिखो बसंत
यह रक्त का रंग है
वक्त की आँख है
पत्थर पर घिसे हुए शस्त्र की
भभकवाले मेरे उत्तेजित आदिवासी विचार
रुको और देखो हवा का रुख
पैनाये हुए सारे तीर और तरकश
टिका दो यहाँ...
ठीक-यहाँ-कविताओं में
राजनीतिक हत्याओं का प्रस्ताव
अमूमन, स्वीकृत है
और पहली बार
आत्महीनता के खिलाफ़
हिंसा ने
पहल की है।