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राग धनाश्री
या सिसुके गुन नाम-बड़ाई |
को कहि सकै, सुनहु नरपति, श्रीपति समान प्रभुताई ||
जद्यपि बुधि, बय, रुप, सील, गुन समै चारु चार्यो भाई |
तदपि लोक-लोचन-चकोर-ससि राम भगत-सुखदाई ||
सुर, नर, मुनि करि अभय, दनुज हति, हरहि, धरनि गरुआई |
कीरति बिमल बिस्व-अघमोचनि रहिहि सकल जग छाई ||
याके चरन-सरोज कपट तजि जे भजिहै मन लाई |
ते कुल जुगल सहित तरिहैं भव, यह न कछू अधिकाई ||
सुनि गुरबचन पुलक तन दम्पति, हरष न हृदय समाई |
तुलसिदास अवलोकि मातु-मुख प्रभु मनमें मुसुकाई ||