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बँसबिट्टी में कोयल बोले
महुआ डाल महोखा
आया कहाँ बसन्त इधर है
तुम्हें हुआ है धोखा।।
किंशुक से मंदार वृक्ष की
अनबन है पुशतैनी
दोनों लहूलुहान हो रहे
ऎसी पढ़ी रमैनी
बिना फिटकरी-हर्रे के ही
रंग हो गया चोखा।
आये घोष बड़े व्यापारी
नदी बनेगी दासी
एक-एक कर बिक जाएगी
अपनी मथुरा-काशी
बेच रहा इतिहास इन दिनों
यह बाज़ार अनोखा।
नया काबुलीवाला आया
सोनित तक खींचेगा
पानी में तेजाब घोलकर
पौधों को सींचेगा
झाड़-फूँक सब ले जाएगा
आन गाँव का सोखा।
जब से लिपिक बने मनसिज
भूले सरसिज की बोली
मुँह पर कालिख पोत
हमारे राजा खेलें होली
मुजरा लोगे कब तक भैया
उजड़ा रामझरोखा।
शब्दार्थ :
बँसबिट्टी=बाँसों की झुरमुट (बँसवारी)
महोखा=बँसवारी में रहने वाला एक पक्षी जिसकी आवाज़ बहुत भद्दी होती है।
घोष=छोटा गाँव
सोनित= रक्त
मनसिज=कामदेव
सरसिज=कमल का फूल
(रचनाकाल : 10.03.1997)