भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"इस ख़ौफ़नाक दौर में / सरोज परमार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 23: पंक्ति 23:
 
इस दुरभिसन्धियों के ख़ौफ़नाक दौर में
 
इस दुरभिसन्धियों के ख़ौफ़नाक दौर में
 
कहाँ है मुकम्मल सुख?
 
कहाँ है मुकम्मल सुख?
तुम्ही बताओ किन भरोसेमन्द हाथों में
+
तुम्हीं बताओ  
 +
किन भरोसेमन्द हाथों में
 
सौंप दूँ अपनी नन्हीं बुलबुल.
 
सौंप दूँ अपनी नन्हीं बुलबुल.
 
</poem>
 
</poem>

08:23, 30 जनवरी 2009 का अवतरण

 
अक्सर लोग फूलों का गीत गुनगुनाते
बँट जाते हैं पैने ख़ंजर
थपथपाते हैं मेज़ें
पीटते हैं थालियाँ
खीसें निपोरते
लगाते हैं कहीं सेंध भी.
ब्रीफ़केसों में बन्द
अस्मत, किस्मत, ताक़त
दलालों के रगड़े में
पूरा समाज.
बातें हैं समझौते की
फ़स्लें उगाते लाशों की
मिसाइल की नोक पर
बाँध इन्सानियत को
उगलवाते हैं अमन-चैन,सुकून
इस दुरभिसन्धियों के ख़ौफ़नाक दौर में
कहाँ है मुकम्मल सुख?
तुम्हीं बताओ
किन भरोसेमन्द हाथों में
सौंप दूँ अपनी नन्हीं बुलबुल.