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यह कविता विजय बहादुर सिंह के विदिशा निवास को लक्ष्य कर लिखी गई जो अब सिर्फ़ इतिहास भर बचा है। | यह कविता विजय बहादुर सिंह के विदिशा निवास को लक्ष्य कर लिखी गई जो अब सिर्फ़ इतिहास भर बचा है। | ||
− | '''विजय बहादुर सिंह : हिन्दी के कवि और प्रतिष्ठित आलोचक। कलकत्ता से प्रकाशित हिन्दी की पत्रिका 'वागर्थ' के सम्पादक। कविता कोश में कविताएँ उपलब्ध हैं। | + | '''विजय बहादुर सिंह : |
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18:29, 1 फ़रवरी 2009 का अवतरण
(विजय बहादुर सिंह के वास्ते)
विदिशा में 48 स्वर्णकार कॉलोनी
अदीबों के बीच जुबान पर चढ़ा मुहावरा हो गया था
उस एक ठिकाने पर नागार्जुन, क़ैफ़ भोपाली,
त्रिलोचन, भवानीप्रसाद मिश्र, भाऊ समर्थ, शलभ
श्रीराम सिंह, विश्वेश्वर, माहेश्वर तिवारी, नीलकांत,
वेणु गोपाल, विनय दुबे, उदय प्रकाश, राजेश जोशी,
शरद श्रीवास्तव, अशोक माहेश्वरी, अशोक अग्रवाल,
नवीन सागर, अष्टभुजा शुक्ल, एकान्त श्रीवास्तव और
अंतरंग नामों की एक फ़ेहरिस्त है, जो वहाँ
आते ही रहे
48 स्वर्णकार कॉलोनी में अब कोई नहीं रहता
मुमकिन है कि बन्द दरवाज़े से फेंक दी जाती हो
कोई चिट्ठी भीतर
इस पते के रहवासी अब आबाद किए हैं भोपाल
मैं नहीं जाता उनके नए पड़ाव की ओर
अलबत्ता,
विदिशा की उस पुरानी गली से
अब भी रोज़ गुज़रता हूँ
गली, जिसके सिरे पर एक आरा मशीन है
और जहाँ निरन्तर शोर के बीच
आरी से झरता ही रहता है बारीक बुरादा।
सन्दर्भ :
यह कविता विजय बहादुर सिंह के विदिशा निवास को लक्ष्य कर लिखी गई जो अब सिर्फ़ इतिहास भर बचा है।
विजय बहादुर सिंह :
हिन्दी के कवि और प्रतिष्ठित आलोचक। कलकत्ता से प्रकाशित हिन्दी की पत्रिका 'वागर्थ' के सम्पादक। कविता कोश में कविताएँ उपलब्ध हैं।