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सर्द ठंडी रातों में
नग्न अँधेरा ,
एक भिखारी सा...
यूँ ही इधर-उधर डोलता है
तलाशता है
एक गर्माहट
कभी बुझते दिए की रौशनी में
कभी काँपते पेडों के पत्तों में
कभी खोजता है कोई सहारा
टूटे हुए खंडहरों में,
या फिर टूटे दिलों में
कुछ सुगबुगा के अपनी
ज़िंदगी गुज़ार देता है
यह अँधेरा कितना बेबस-सा
यूँ थरथराते ठंड के साए में
बन के याचक-सा
वस्त्रहीन
राते काट लेता है !!