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"अंतर / केशव" के अवतरणों में अंतर

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माँ ने
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छोटी-छोटी खुशियों की ओर
कभी नहीं कहा
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हम मुड़कर देखते नहीं  
ये करो वो मत करो
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बड़ी खुशियाँ दिखती नहीं हमें
पिता हमेशा कहते रहे यही
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उम्र गुजर जाती है यों ही  
 
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द्वार-द्वार खटखटाते हुए।
उन दोनों के कहने के बीच
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अंतर था उतना ही
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जितना होता है
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होने न होने के बीच
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वह दोनों के कथन के बीच
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उगता रहा कुछ ऐसे
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जैसे सुदूर
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टिमटिमाती रोशनियाँ।
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23:50, 6 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

छोटी-छोटी खुशियों की ओर
हम मुड़कर देखते नहीं
बड़ी खुशियाँ दिखती नहीं हमें
उम्र गुजर जाती है यों ही
द्वार-द्वार खटखटाते हुए।