"ओ आकाश / दीनू कश्यप" के अवतरणों में अंतर
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दीनू कश्यप |संग्रह= }} <Poem> ये जो पहना है मैने लोहे ...) |
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 10: | पंक्ति 10: | ||
कंधे पर लटकी है जो बंदूक | कंधे पर लटकी है जो बंदूक | ||
देखो-------- | देखो-------- | ||
+ | |||
यह हमारे भारी भरकम बूट | यह हमारे भारी भरकम बूट | ||
ये मेरे नहीं हैं। | ये मेरे नहीं हैं। | ||
+ | |||
ओ आकाश | ओ आकाश | ||
ये नहीं है मेरे | ये नहीं है मेरे | ||
पंक्ति 19: | पंक्ति 21: | ||
इन्हें बनवाया होगा | इन्हें बनवाया होगा | ||
किसी महत्वकांक्षी ने | किसी महत्वकांक्षी ने | ||
+ | |||
ओ आकाश | ओ आकाश | ||
ये मेरे नहीं---------- | ये मेरे नहीं---------- | ||
पंक्ति 30: | पंक्ति 33: | ||
लेकिन उन्हें पहले से तालाश थी | लेकिन उन्हें पहले से तालाश थी | ||
मुझ जैसी कद काठी की | मुझ जैसी कद काठी की | ||
− | + | (जबकि उनका पान चबाता गबरू | |
− | जबकि उनका पान चबाता गबरू | + | |
कम नहीं था मुझसे किसी बात से।) | कम नहीं था मुझसे किसी बात से।) | ||
पंक्ति 42: | पंक्ति 44: | ||
मुझे ठेलनी है अपनी सरहद | मुझे ठेलनी है अपनी सरहद | ||
किन्ही बेगाने टुकड़े पर | किन्ही बेगाने टुकड़े पर | ||
+ | |||
ओ आकाश | ओ आकाश | ||
ज़िन्दा रहने का यह बीज गणित | ज़िन्दा रहने का यह बीज गणित | ||
पंक्ति 48: | पंक्ति 51: | ||
वह गुथी हुई उग रही है | वह गुथी हुई उग रही है | ||
संगीनो की टहनियों पर। | संगीनो की टहनियों पर। | ||
+ | |||
ओ आकाश | ओ आकाश | ||
युद्ध के इस ऊसर मैदान में | युद्ध के इस ऊसर मैदान में | ||
पंक्ति 55: | पंक्ति 59: | ||
इस मरु प्रद्श में | इस मरु प्रद्श में | ||
ठण्डे पानी की बावडियां नहीं है। | ठण्डे पानी की बावडियां नहीं है। | ||
− | |||
</poem> | </poem> |
03:17, 8 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण
ये जो पहना है मैने
लोहे का टोप
कंधे पर लटकी है जो बंदूक
देखो--------
यह हमारे भारी भरकम बूट
ये मेरे नहीं हैं।
ओ आकाश
ये नहीं है मेरे
इन्हें बनाया होगा
किन्हीं बिके या
मज़बूर हाथों ने
इन्हें बनवाया होगा
किसी महत्वकांक्षी ने
ओ आकाश
ये मेरे नहीं----------
बेमौसम की बारिश से
परेशान था मेरा खपरैल
सावन के मेघ
छिड़क रहे थे जेठ की धूप
साफ कहूं
तो मैं निकला था।
घर से रोटी की तालाश में।
लेकिन उन्हें पहले से तालाश थी
मुझ जैसी कद काठी की
(जबकि उनका पान चबाता गबरू
कम नहीं था मुझसे किसी बात से।)
ओ आकाश
उन्होंने मुझे समझाया
मैने भी पहली बार समझा
तुम्हारे नीचे पृथ्वी एक नहीं है।
पृथ्वी के हैं बड़े बहुत बड़े टुकडे।
हर टुकड़े की है अपनी-अपनी हद
मुझे ठेलनी है अपनी सरहद
किन्ही बेगाने टुकड़े पर
ओ आकाश
ज़िन्दा रहने का यह बीज गणित
मेरी समझ से बाहिर है
मेरी रोटी खेतों नहीं उगती।
वह गुथी हुई उग रही है
संगीनो की टहनियों पर।
ओ आकाश
युद्ध के इस ऊसर मैदान में
तुम वैसे ही नज़र आते हो
जैसे घर के छोटे से आँगन से
फ़र्क़ तो है सिर्फ़ इतना
इस मरु प्रद्श में
ठण्डे पानी की बावडियां नहीं है।