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"लोग टूट जाते हैं / बशीर बद्र" के अवतरणों में अंतर
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तुम तरस नहीं खाते, बस्तियाँ जलाने में | तुम तरस नहीं खाते, बस्तियाँ जलाने में | ||
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मौसमों के आने में, मौसमों के जाने में | मौसमों के आने में, मौसमों के जाने में | ||
20:13, 9 फ़रवरी 2009 का अवतरण
लोग टूट जाते हैं, एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते, बस्तियाँ जलाने में
और जाम टूटेंगे, इस शराबख़ाने में
मौसमों के आने में, मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को, लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है, दिल को दिल बनाने में
फ़ाख़्ता की मजबूरी ,ये भी कह नहीं सकती
कौन साँप रखता है, उसके आशियाने में
दूसरी कोई लड़की, ज़िंदगी में आएगी
कितनी देर लगती है, उसको भूल जाने में