"हिन्दी मेरी भाषा / अविनाश" के अवतरणों में अंतर
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<br />उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को | <br />उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को | ||
<br />समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है | <br />समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है | ||
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<br /><br />सब्जी को शोरबा कहने पर समझते हैं | <br /><br />सब्जी को शोरबा कहने पर समझते हैं | ||
<br />ये मैं क्या कह रहा हूँ | <br />ये मैं क्या कह रहा हूँ | ||
<br />ऐसा तो मुसलमान कहते हैं | <br />ऐसा तो मुसलमान कहते हैं | ||
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<br /><br />यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई | <br /><br />यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई | ||
<br />जबकि हजारों-हजार बकरों-भैंसों को | <br />जबकि हजारों-हजार बकरों-भैंसों को | ||
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<br />वे गश नहीं खाते | <br />वे गश नहीं खाते | ||
<br />शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त पर खाने से मना नहीं करता | <br />शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त पर खाने से मना नहीं करता | ||
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<br /><br />हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी | <br /><br />हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी | ||
<br />पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता | <br />पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता | ||
<br />लखनऊ अभी दूर है | <br />लखनऊ अभी दूर है | ||
<br />शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर | <br />शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर | ||
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<br /><br />दोस्त कहते हैं | <br /><br />दोस्त कहते हैं | ||
<br />तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं | <br />तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं | ||
<br />ये ठीक नहीं है | <br />ये ठीक नहीं है | ||
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<br />पिता खाने की थाली फेंक देते हैं | <br />पिता खाने की थाली फेंक देते हैं | ||
<br />बहनें आना छोड़ देती हैं | <br />बहनें आना छोड़ देती हैं | ||
<br />पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं | <br />पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं | ||
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<br />मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव | <br />मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव | ||
<br />एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं | <br />एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं | ||
<br />वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं | <br />वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं | ||
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<br /><br />दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर है | <br /><br />दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर है | ||
<br />मंजूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें | <br />मंजूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें | ||
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<br />मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है | <br />मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है | ||
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<br /><br />‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे | <br /><br />‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे | ||
<br />पीड़ परायी जाणी रे’ | <br />पीड़ परायी जाणी रे’ | ||
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<br /><br />हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान | <br /><br />हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान | ||
<br />हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे | <br />हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे | ||
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<br /><br />कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास! | <br /><br />कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास! |
09:21, 12 फ़रवरी 2009 का अवतरण
हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैं
जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं
उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को
समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है
सब्जी को शोरबा कहने पर समझते हैं
ये मैं क्या कह रहा हूँ
ऐसा तो मुसलमान कहते हैं
यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई
जबकि हजारों-हजार बकरों-भैंसों को
कटते हुए देखकर भी
वे गश नहीं खाते
शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक्त पर खाने से मना नहीं करता
हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी
पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता
लखनऊ अभी दूर है
शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर
दोस्त कहते हैं
तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं
ये ठीक नहीं है
पिता खाने की थाली फेंक देते हैं
बहनें आना छोड़ देती हैं
पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं
मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूं गाँव
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं
दोस्तों की किनाराक़शी मंजूर है
मंजूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें
मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है
‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे
पीड़ परायी जाणी रे’
हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान
हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे
कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास!