भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"धुआँ / सौरभ" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सौरभ |संग्रह=कभी तो खुलेगा }} <Poem> '''एक''' धुँध भरी शा...)
 
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
{{KKRachna
 
{{KKRachna
 
|रचनाकार=सौरभ  
 
|रचनाकार=सौरभ  
|संग्रह=कभी तो खुलेगा
+
|संग्रह=कभी तो खुलेगा / सौरभ
 
}}
 
}}
 
<Poem>
 
<Poem>

01:15, 28 फ़रवरी 2009 के समय का अवतरण

एक

धुँध भरी शाम है
धुआँ उड़ा रहा हूँ
धुआँ हो जाऊँगा इक दिन
कितना अपना लग रहा है
धुआँ
जो फैल के धुँध हो गया।


दो

सर्दयों की शाम है
बर्फ पड़ रही है
मैं सेंक रहा हूँ आग
लकड़ियों से उठ रहा है धुआँ
जो शायद भीगी हैं आँसुओं से
कुछ सूखी सूखी को
शान से जला रही है आग
क्या मैं भी इसी शान से
जा पाऊँगा।

तीन

बीज से पौधा, फिर पेड़
मुरझा के बनती सूखी लकड़ी
जो जल रही अब अलाव में
धुआँ ऊपर उठ रहा है
निगोड़ी राख है धूल चाट रही।

चार

सूखी घास और लकड़ी
समेट कर ले जाते गडरिये
उधर,
श्मशान को ले जाया जा रहा मुर्दा
बकरियाँ चबा रही हैं हरी घास
दिमागों में छाई है भनभनाहट
शाम हुई
सूखा सामान अग्नि की भेंट हुआ
अपने-अपने ठिकाने पे
धू-धू कर जल उठा सब सामान।

पाँच

गीली लकड़ी
चूल्हे में पकाती खाना
या फूँकती मुर्दे को
छोड़ती है चुभने वाला
धुआँ।