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23:11, 4 मार्च 2009 के समय का अवतरण
लोकाट को वो पेड़
पठानकोट के बंगले के सामने वाले हिस्से में
एक महिला चौकीदार की तरह तैनात रहता था।
फल रसीला
मोटे पत्तों से ढका।
तब घर के बाहर गोलियां चला करती थीं
पंजाब सुलग रहा था
कर्फ्यू की खबर सुबह के नाश्ते के साथ आती थी
कर्फ्यू अभी चार दिन और चलेगा
ये रात के खाने का पहला कौर होता था।
बचपन के तमाम दिन
उसी आतंक की कंपन में गुजरे
नहीं जानते थे कि कल अपनी मुट्ठी में आएगा भी या नहीं
मालूम सिर्फ ये था कि
बस यही पल, जो अभी सांसों के साथ सरक रहा है,
अपना है।
लेकिन लोकाट के उस पेड़ को कोई डर नहीं था
गिलहरी उस पर खरगोश की तरह अठखेलियां करती
चिड़िया अपनी बात कहती
मैं स्कूल से आती तो
लोकाट के उस पेड़ के साथ छोटा सा संवाद भी हो जाता।
पंजाब में अब गोलियों की आवाज चुप है
तब जबकि बचपन के दिन भी गुजर गए
लेकिन आज भी जब-तब याद आते हैं
कर्फ्यू के वे अनचाहे बिन-बुलाए डरे दिन
और लोकाट का वह मीठा पेड़।