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रचनाकार: |
आरती कीजै नरसिंह कुंवर की।
वेद विमल यश गाउँ मेरे प्रभुजी॥
पहली आरती प्रह्लाद उबारे।
हिरणाकुश नख उदर विदारे॥
दुसरी आरती वामन सेवा।
बल के द्वारे पधारे हरि देवा॥
तीसरी आरती ब्रह्म पधारे।
सहसबाहु के भुजा उखारे॥
चौथी आरती असुर संहारे।
भक्त विभीषण लंक पधारे॥
पाँचवीं आरती कंस पछारे।
गोपी ग्वाल सखा प्रतिपाले॥
तुलसी को पत्र कंठ मणि हीरा।
हरषि-निरखि गावे दास कबीरा
(२)
जय-जय रविनन्दन जय दुःख भंजन
जय-जय शनि हरे॥टेक॥
जय भुजचारी, धारणकारी, दुष्ट दलन॥१॥
तुम होत कुपित नित करत दुखित, धनि को निर्धन॥२॥
तुम घर अनुप यम का स्वरूप हो, करत बंधन॥३॥
तब नाम जो दस तोहि करत सो बस, जो करे रटन॥४॥
महिमा अपर जग में तुम्हारे, जपते देवतन॥५॥
सब नैन कठिन नित बरे अग्नि, भैंसा वाहन॥६॥
प्रभु तेज तुम्हारा अतिहिं करारा, जानत सब जन॥७॥
प्रभु शनि दान से तुम महान, होते हो मगन॥८॥
प्रभु उदित नारायन शीश, नवायन धरे चरण।
जय शनि हरे।