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"संसार के सिरे पर / राजुला शाह" के अवतरणों में अंतर

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18:21, 12 मार्च 2009 के समय का अवतरण

दिनों से मन में अनकही बातों का सुख था,
उलझन शब्दों के साथ थी
शब्द झूठे हों न हों, झूठे लगते

रेखाएँ, रंग, घिस्से और धब्बे भी कहते-पर वे जो कहते
तय अर्थों में बँधा न होता
हाँ को ना भी समझ सकते
और स्वप्न में दु:स्वप्न का आभास हो सकता
चूँकि वो ‘कुछ’ न होता जब तक आप उसे मान न लेते,
ढूँढ़ न लेते उसमें कुछ
दरवाजा खिड़की समझ कर खोल देते और हवा की जगह
हाथी चला आता

अनुभूति ये पकड़ से बाहर है,
नाम देने के लिए ही सही-एक अजीब अधूरापन
जब रंगों के बीच बैठो, तो एक बेचैनी, जो लगता है
बाहर निकलेगी,
पर या तो निकलती नहीं,
या निकल कर भी सुलझती नहीं, यूँ
अमूर्त भाव जो अमूर्त रूप ही लेता है
कभी छूता है, सुनाई देता है, कभी कुछ दीख भी पड़ता है
और
कभी पलट कर देखो तो छूट भी जाता है
ढूँढ़ा नहीं जाता उसे, वो मिल जाता है
कभी रंगीन पानी से भरे कटोरे में हिलते तिनकों की छाया में,
कभी किसी उजास रात में
अर्थ और तर्क से नहीं मिलता
वैसे भी नहीं मिलता
जो छूटता है उसे छूट जाने दो
ढीला छोड़ो
भूलो भी
कुछ याद पड़ता है,
धुँधला होता-सा..पकड़ो...
यह तो पहले भी कभी घट चुका है
ठीक इसी तरह,
पहले भी कहीं
यहीं
नहीं, यह जो धुएँ के धागे-सा उड़ रहा है उसे पकड़ना मुश्किल है,
उसे तैरने दो

बनारस कब का पीछे छोड़ दिया
बनारस लेकिन पीछा नहीं छोड़ता...
रेल के सीखचों के पार भी बनारस ही दिखता आया
साथ चल रहा है तभी से...
नीला अँधेरा, रात की नदी में दिये-सा बनारस
मन्दिरों की गूँज निकट से, दूर से
बनारस में डूबे, अपने में डूबे लोग
जीवन से भरे और उससे खाली-एक साथ ही
शायद बनारस में वही लोग हैं जो सदियाँ हुई इस संसार में आये थे
जीवन से जुड़े, पीपल पात से-अब टूटा, तब टूटा,
पर जुड़ा रहता
संसार से अनुरक्ति न सही, विरक्ति भी क्योंकर हो ?
संसार से वैराग्य भी संसार में ही न हो !
भले ही संसार के सिरे पर
संसार के इस फैले झमेले के सिरे पर-बनारस
गंगा के किनारे किनारे, बिना बीच के, ओर-छोर वाला एक शहर
जिससे सबके पास नदी है,
गति है
बनारस के लिए गंगा की गति काफी है
पैदल और रिक्शे को भी कहीं जाने की हड़बड़ी नहीं
प्रवाह तो है जीवन में-भगदड़ नहीं।
चारों तरफ इतना जीवन...इतना विराट रूप जीवन
कि ‘कहीं नहीं है मरना’

उन्होंने अवधूत को विष के लिए याद किया।
वे चले आये
नीलकण्ठ जो कहलाना था
किसी को ना न कर पाते
हरएक के लिए खुले, मुक्त-हस्त दाता, थोड़े में रीझते-आशुतोष
उनका शहर इससे अलग फिर क्या होगा !
जितना गहरा, उतना ही पारदर्शी।
सरल-सा गूढ़....कुछ नीला अँधेरा।

दीवाली की रात में दिये-सा बनारस।
गाढ़े रंगों में यहाँ वहाँ से झाँकता रोशन पीला,
पलक झपकते बनारस।
कहीं भी आते जाते, डूबते उतराते,
झपक में बनारस दिख कर बिला जाता।
छूट गया है पीछे ओनों कोनों में कुछ।
जैसे आत्मीय कोई, जिससे दिनों दिन मिलना न हो,
पर इत्मीनान कि बदल कर भी आखिर कितना बदलेगा
आँवले का स्वाद !
विश्वास दिलाता शहर कि वह अपनी अद्भुत गति में
स्थिर बहता रहेगा, रहता रहेगा
वैसा ही मिलेगा, जब भी लौटना हो,
‘भले ही बरस-दिन अनगिन युगों के बाद’

इतने गहरे धँसा बनारस
कि सामने उभरते हर बिम्ब में झाँक जाता।
रेल की खिड़की के पार,
कटोरे के गहरे गोल में,
समुद्र वाले शहर की रात में,
बन्द दरवाजे के इस तरफ छतरियों के नीचे कहीं,
बूँद की छाया में,
सदियों से चिपके उस भूरे गीले पत्ते में,
सुख में, दु:ख में, और उसके आर-पार बिंधे जीवन में।
किसी भी ठाँव में, भाव में,
बनारस के रंग, चहुँ ओर...
नीला अँधेरा, रात की नदी और दिये-सा बनारस।

रंग, रेखाएँ और घिस्से उसे जान-बूझ कर नहीं खींचते,
तिर आता है अपने आप सतह पर-टुकड़ों में बनारस।
बूँद की विशाल छाया में हिलते तिनके
या सदियों से भीगा भूरा पत्ता ?

बनारस से पहले भी था जीवन,
बनारस के बाद भी,
बस बनारस साथ है।
स्थिर अचल की याद साथ है,
सुख है गति में।