"आग की गरज / नंद भारद्वाज" के अवतरणों में अंतर
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नंद भारद्वाज |संग्रह= }} <Poem> नहीं नहीं आग बुझ नहीं ...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
19:33, 25 मार्च 2009 का अवतरण
नहीं नहीं
आग बुझ नहीं सकती
यों ओटी हुई आग भी अगर
बुझने लगी तो क्या होगा ?!
फूँक मारो -
चूल्हे को और उकेरो,
बहुत बार ऐसा भी होता है कि
चिनगियाँ राख की सलवटों में
अदेखी छूट जाती हैं
और फिर तुम
गाँव भर में आग मांगती
फिरती हो -
कई बार
मांगी हुई आग
चूल्हे तक पहुँचने से पहले ही
बुझ जाती है !
अभी कुछ पल पहले
तुम्हें जो दो-एक चिनगियाँ दिखीं थीं -
छोड़ क्यों दिया उन्हें ?
उन्हीं को फूस के बीच
जरा ठीक से रखतीं
और फूँक दी होती ...
अक्सर चूल्हा ओटते
और उकेरते वक़्त
तुम कहीं खो जाती हो,
आग जलने से पहले
उसके उपयोग को लेकर
उदासीन हो जाती हो,
और तुम्हारी उस मारक उदासी का
मेरे पास कोई जवाब नहीं होता !
पारसाल
हमने जाड़े की वो सनसनाती रातें -
जिनमें उल्लुओं तक ने
खामोशी अख़्तियार ली थी -
उसी खलिहान पर
फटी गुदड़ी में लिपटे
आगामी अच्छे दिनों की आस में
बातें करते
हँसते
खिलकते गुज़ार दी थीं !
न दें दोष
भले हम कुदरत को
लेकिन उससे क्या ?
कोई तो होगा आखिर
हमारी इस बदहाली के गर्भ में !
पड़ौसी रग्घा के सुभाव को
सभी जानते हैं,
उसके भेजे में अगर जँच जाय
कि हमारी इस हालत के ज़िम्मेदार
किसी दिल्ली-आगरे-कलकत्तो या
बंबई में छुपे बैठे हैं -
स्साला गंडासा लेकर
दूरियाँ पैदल नापने का
हौसला रखता है !
मैं दिन को दिन
और रात को रात ही कहूंगा
अलबत्ता ये सुबह का वक़्त है
और चूल्हा ठण्डा,
कुछ भी पकाने की सोच से पहले
ज़रूरी है कि चिनगियाँ बटोरी जाएँ -
उन्हें फूस-कचरे के बीच रख
फूँक मारी जाए
आग को जगाया जाए -
यों हाथ झटक देने से तो
कुछ भी हाथ नहीं लगता,
आग की ग़रज़ तो
आग ही साजती है !