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अबूझ और अछूते सवालों में
अनजाने हाथ डालना
बच्चे की आदत होती है,
पहले वह अनुमान नहीं पाता
बला का अन्त
और थाह लेने
उतरता चला जाता है
अंधेरी बावड़ी की सीढ़ियाँ !
बच्चे के
उन बेबाक सवालों को
वह कैसे शान्त करे,
जो एकाएक
हलक से बाहर आकर
खड़े हो जाते हैं सामने
और हक़ीक़त से
जद्दोजहद को मज़बूर करते हैं :
पापा,
हमें क्यों देखते रहना होता है
अनचाहे किसी की ओर,
क्यों रखें किसी से
हमदर्दी की आस -
क्यों खड़े रहना होता है
राजमार्ग के किनारे
बोलें किसी की अनचाही
जय-जयकार
और क्यों कभी
नि:शब्द बैठना पड़ता है
मन की इच्छाएँ मार कर ?
कैसी अनचीन्ही दुविधा है
एक तरफ़ बच्चे की भोली इच्छाएँ -
सयानी शंकाएँ,
अनबूझे कोमल सपने
और उमगती कच्ची नींद,
और दूजी तरफ़
यह दारुण परवशता की पीड़ !
उसकी आँखों के आगे
घूमती है बच्चे की कोमल इच्छाएँ
और सवालों से जूझता है मन
आख़िरकार थके-हारे पाँव
चल पड़ते हैं यंत्रवत् उसी राह पर
जो एक अन्तहीन जंगल में खो जाती है !