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अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !<br><br>
लिये कीड़ाक्रीड़ा-वंशी दिन-रात <br>
पलातक शिशु-सा मैं अनजान, <br>
कर्म के कोलाहल से दूर <br>
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