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रसवन्ती (कविता) / रामधारी सिंह "दिनकर"
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12:39, 30 मार्च 2009
अरी ओ रसवन्ती सुकुमार !<br><br>
लिये
कीड़ा
क्रीड़ा
-वंशी दिन-रात <br>
पलातक शिशु-सा मैं अनजान, <br>
कर्म के कोलाहल से दूर <br>
S.K.Jhingan
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