भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सहेलियाँ / राग तेलंग" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राग तेलंग }} <Poem> सहेलियाँ बिछुड़ने के लिए ही मिल...)
 
(कोई अंतर नहीं)

02:09, 3 अप्रैल 2009 के समय का अवतरण


सहेलियाँ बिछुड़ने के लिए ही मिलती हैं
जितना भी वक़्त गुज़रता है सहेलियों के साथ
दर्ज हो जाता है परत दर परत और
मिलता है एक लंबे अर्से के बाद फॉसिल की शक्ल में
पुरुषों की क्रूर दुनिया की टनों भारी चट्टानों के बीच दबा हुआ

सहेलियाँ पंखुड़ियों की तरह रखी गई थीं
दिल की किताब के सफों के बीच
जिन्हें खोला जाता नीम अकेले में बरसों-बरस बाद तो
महक उठता था मन उन दिनों की स्मृतियों में जाकर और
तब बरबस ही भीग आतीं आंखें इस सत्य को जानते कि
सहेलियां बिछुड़ने के लिए ही मिलती हैं

सहेलियों के साथ खेले गए
फुगड़ी के खेल,झूलों की पींगें, रंगोली में साथ रहकर भरे गए रंग
सब जैसे समाहित हो गए
विदा के कर्मकांडों के दौरान दी गई आहुतियों के तौर पर

फौलाद का दिल चाहिए
एक औरत को समझने के लिए और पिफर
उसकी पनीली आंखों में यह लिखा हुआ पढ़ने के लिए कि
सहेलियां बिछुड़ने के लिए ही मिलती हैं

वह जो अपनी बेटी को भरपूर निगाह से देख रही है
वह जो सिखा रही है
अपनी लाड़ली को खाना पकाना
कमसिन उम्र में धधकते चूल्हे के करीब
वह जो बिटिया के लंबे बालों पर
फेर रही है स्नेह से हाथ कंघी करते हुए
वे सब कहना चाहती हैं, समझाना चाहती हैं
उसके औरत बनने के ठीक पहले
पर कुछ बात है इस बात में जो कहा जाता नहीं उनसे कि
सहेलियाँ बिछुड़ने के लिए ही मिलती हैं ।