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लालच
काई की तरह जमता था मन के एक अदेखे कोने में
जहाँ चीज़ों के प्रति अतृप्त आकांक्षाओं का पानी
इकट्ठा हुआ करता
रोज़ देर शाम
बाज़ार के रास्ते घर लौटते हुए
लालच के नित नए बोझ से लदती जाती पीठ पर
लगती जब एक दिन अपनी ही देह बंधी हुई
उठाना मुश्किल होता
रूई के फाहे सा भारी ईमान का भार
दिखाता दिवास्वप्न बिन धरातल के
जहां तक पहुंच नहीं पाती
पसीने से मेल खाती मोगरे की सुगंध ।