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"पोस्टमैन / अनिल गंगल" के अवतरणों में अंतर

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21:20, 10 अप्रैल 2009 का अवतरण

एक दिन हो जाएंगे हम
दरवाज़े पर तुम्हारी दस्तक से महरूम ।

अनन्त में नहीं गूंजती होगी तुम्हारी पुकार
खिड़की पर बैठ कोई नहीं कर रहा होगा इंतज़ार
तुम्हारी वर्दी के ज़ुहूर का
तुम्हारी पदचापों को पहचानने के अभ्यस्त हमारे कान
इस शिनाख्त का कत्ल कर चुके होंगे ।

टुटही साइकिल की चेन की करड़-करड़ न होगी
सोलह-सोलह किलोमीटर की दूरी को हर राज़े
साइकिल पर नापने वाला अंफसुर्दा चेहरा
गायब हो जाएगा दृश्य से।

नहीं बचेगी हमारे जीवन में
तुम्हारी इतनी-सी भी ज़रूरत
जब लिखने और पढ़ने से ज़रूरी
सुनना और देखना लगेगा।
जिस जीवन-रस में सिक्त होकर
आती थी कोई चिट्ठी हमारी दहलीज़ पर
चौतरफ पसरी बेहिसी और बेनियाज़ी के आलम में
सहरा की रेत की मानिन्द
वह सूख चुका होगा।

तुम्हारी पुकार और कदमों की आहट के पार
नहीं बचेंगे इश्क और उल्फत
नहीं बचेगा चंद अल्फाज को कलमबंद करने का सब्र
तकिये के नीचे चिट्ठी को रख सोने की मुरब्बत
और एक अदद खत में अपना जिगर उड़ेलने की ज़हमत
नहीं बचेगी।

बेइंतिहा तरंगों के सैलाब में भी नहीं घुटती होगी हमारी सांस
इतने तारों और बेतारों की बेड़ियों में कसी होगी हमारी रूह
फिर भी कर रहे होंगे हम मुक्ति और मोक्ष का तस्सवुर
सट्टा बाज़ार में नथुने फुलाए डकराता
इतनी तेज़ी से दौड़ता होगा सांड
कि इस्तंकबाल के लिए दरवाजा खोलने
और लू से थके-हारे शख्स से
दो घूंट पानी के लिए पूछने की भी फुर्सत न होगी।

चीज़े ही चीज़े होंगी अपार
जिनके बोझ तले दबे हुए हम हाँफ रहे होंगे
फिर भी और ज़ियाद चीजों को पाने की ख्वाहिश
कम न होगी
एक दुनियावी गांव के अगरचे हम बाशिंदे होंगे
तिस पर भी नहीं पहचानते होंगे हम पड़ौसी को उसके नाम से
रिश्ते होंगे मो के दोनों तरंफ
मगर वे सिंर्फ दुकानदार और खरीदार की शक्ल में होंगे ।

यह वह वक्त होगा
जब एक लुप्त होती प्रजाति की भांति
तुम्हें भी जाना ही होगा धरती की कक्षा से बाहर
कहकशाँ में गायब हो जाने के लिए ।